SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०८ गिर चुके हैं। पंच महाव्रतोंका तो पता ही नहीं, अणुव्रतधारी श्रावकों से भी इनमें से कई तो गये हैं। गया, कहाँ तक कहें - विद्वत्ता भी गई, सदाचार भी इसीलिये स्थानकवासी एवं तेरह पन्थियोंकी बन आई, वे उनके चरित्रोंको वर्णन कर अपने अनुयायियोंकी संख्या बढ़ाने लगे । जैनेतर लोग गुरुजी के चरित्रों को लेकर मसखरी उड़ाने लगे जिनके पूर्वजोंने नवीन नवीन ग्रंथ रचकर अजैनों को जैन बनाया, अपनी विद्वत्ता एवं आचारविचारके प्रभावसे राजाओं तथा बादशाहों पर धाक जमाई, वे ही आज जैनधर्मको लाँछित कर रहे हैं ! + इसीलिये राजपूताना प्रातीय प्रथम यति सम्मेलन (संबंत १६६१, बीकानेर ) में निम्नलिखित प्रस्ताव पास किये गये थे। खेद है उनका पालन नहीं हो सका--- (१) उद्भट वेश न रखना । (२) दवा आदिके सिवा जमीकन्द आदिके त्यागका भरसक प्रयत्न करना ( ३ ) दवा आदिके सिवा पंच तिथियों में हरी वनस्पति आदिके त्यागका भरसक प्रयत्न करना ( ४ ) रात्रि भोजनके त्यागकी चेष्टा करना । (१०) आवश्यकता के सिवाय रातको उपाश्रयसे बाहर न होना ( २० ) श्रग्रेज़ी फैशनके बाल न रखना (२२) दीक्षित यतिको साग सब्जी खरीदने के समय प्रगट है कि वर्तमान में इन सब बातों के विपरीत प्रचारे साईकिल पर बैठ बाज़ार न घूमना । ( पंच प्रतिक्रमण कीकोटमा । (२२) TAA VY पापापा A अनेकान्त LLL ---- qq ----- And Hers है, तभी इनका विरोध समर्थनकी आवश्यकता हुई । [ ज्येष्ठ, आषाद, वीर निर्वाण सं० २४६६ यतिनियोंकी तो बात ही न पूछिये, उनके पतनकी हद्द हो चुकी है, उनकी चरित्रहीनता जैनसमाजके लिये कलंकका कारण हो रही है ! “गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिङ्गं न च वयः !” महात्मा भर्तृहरिकी यह उक्ति सोलहों आने सत्य है । मनुष्यका आदर व पूजन उसके गुणों ही के कारण होता है । गुणविहीन वही मनुष्य पद पद पर ठुकराया जाता है । यतियों का भी समाज पर प्रभाव तभी तक रहा जब तक उनमें एक न एक गुण ( चाहे ज्ञान हो, विद्वत्ता हो, वैद्यक हो; मंत्रादिका ज्ञान अथवा परोपकार की भावना हो ) अनेक रूपोंमें विद्यमान रहा । ज्यों ज्यों उन गुणोंके अस्तित्वका विलोप होता गया त्यों त्यों उनका आदर कम होने लगा । अन्तमें आज जो हालत हुई हैं उसके वह स्वयं मुक्तभोगी हैं । न तो उनको कोई भक्ति से वंदन करता है, न कोई M श्रद्धा की दृष्टि से उन्हें देखता है । गोचरी में भी पहले अच्छे अच्छे पदार्थ मिलते थे, आज बिना भावके, केवल परिपाटीके लिहाज से बुरी से बुरी वस्तुएँ उन्हे बहराई जाती हैं । बातर में उनका तिरस्कार किया जाता है, कई व्यक्ति तो उनसे घृणा तक करते हैं । उनका आदर भक्तिशून्य और भाव विहीन, केवल दिखावेका रह गया है, अतः उनका भविष्य कितना अन्धकारमय है, पाठक स्वयं उस सीचा नहा जा सकता । जनधमिका ज्ञान उनस देखकर अतिशय परिताप है, हृदय बेचैन-सा हो जाता है। अगर यत्र भविष्य यह + 221 SFA in ככה רמן F ᅮᅮ र गोवा गत T OO । का नाम उनसे किनारे हो रहा है अतः मथेरणोंकी भांति ये अगर
SR No.527163
Book TitleAnekant 1940 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy