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________________ वर्ष ३, किरम -६] यति-समाज ५०७ रक्षाके लिये वैद्यक, ज्योतिष और मंत्र-तंत्रके ज्ञान ( बद्धमुष्टिकटिग्रीवा, मददृष्टिरधोमुखम् ) को ही मुख्यता देने लगे हैं। कई महात्मा तो ऐसे कष्टेन लिख्यते शास्त्र, बस्नेन परिपालयेत् ॥" मिलेंगे जिन्हें प्रतिक्रमण के पाठ भी पूरे नहीं आते। एवं ग्रन्थों की सुरक्षाकी व्यवस्था करते हुये गम्भीर शास्त्रालोचन के योग्य तो अब शायद ही लिखा हैकोई व्यक्ति खोजने पर मिले । क्रियाकाण्डोंको जो जखाद्रक्षेत् स्थलाद्रक्षेत् रक्षत् शिथिलबन्धनात् । करवा सकते हों (प्रतिक्रमण, पोसह, पर्व-व्या मूर्खहस्ते न दातव्या एवं वदति पुस्तिका ॥ ख्यान-वाचन, तप उद्यापन एवं प्रतिष्ठा विधि ) वे अग्ने रक्षेत् जलादचेत् मूषकेभ्यो विशेषतः । अब विद्वान गिने जाने लगे हैं। (उदकानिलचौरेभ्यो मूषकेभ्यो हुताशनात् ।) जिस ज्ञानधनको उनके पूर्वजोंने बड़े ही कष्ट कष्टेन लिखितं शास्त्रं यत्नेन परिपालयेत् ॥ सं लिख लिख कर संचित एवं सुरक्षित रखा, वे मुनि आधारकी तो गंध भी नहीं रहने पाई; अमूल्य हस्तलिखित ग्रन्थोंको सँभालते तक नहीं। पर जब हम उन्हें भावकों के कर्त्तव्यसे भी च्युत वे ग्रंथ दीमकों के भक्ष्य बन गये, उनके पृष्ट नष्ट हो देखते हैं. सब कलेजा धडक उठता है, बुद्धि भी गये, सर्दी आदिमे सुरक्षा न कर सकने के कारण कुछ काम नहीं देती कि हुमा क्या? भगवान महाग्रन्थोंके पत्र चिपक कर थेपड़े हो गये । ( हमारे वीरकी वाणीको सुनाने वाले उपदेशकों की भी संग्रहगं ऐसे अनेक ग्रंथ सुरक्षित हैं)। नवीन क्या यह हालत हो सकती है ? जिस बातकी रचनेकी विद्वत्ता तो सदाके लिये प्रणाम कर बिदा सम्भावना तो क्या, कल्पना भी नहीं की जा स. हुई; पुराने संचित झानधनकी भी इतनी दुर्दशा हो . कती, आज वह हमारे सामने उपस्थित है । बहुतों रही है कि सहृदय व्यक्तिमात्रको सुन कर आँसू के तो न रात्रिभोजन का विचार, न अभक्ष्य वस्तुबहाने पड़ रहे हैं। सहज विचार आता है कि इन ओंका परहेज, न सामायिक प्रतिक्रमण या क्रियाग्रंथोंको लिखते समय उनके पूर्वजोंने कैसे भव्य काण्ड और न नवकारसीका पता । आज इनमें मनोरथ किये होंगे कि हमारे सपूत इन्हें पढ़ पढ़ कई व्यक्ति तो भांग-गाँजा आदि नशैली चीजोंका कर अपनी आत्मा एवं संसारका उपकार करेंगे। संबन करते हैं, यामारोंमें वृष्टि आदिका सौदा पर आज अपने ही योग्य वंशजोंके हाथ इन ग्रंथों करते हैं। उपाश्रयों में रसोई बनाते हैं, व्यभिचारका की ऐसी दुर्दशा देखकर पूर्वजोंकी स्वर्गस्थ श्रात्मा- बोलबाला है । अतएव जगतकी दृष्टिमें वे बहुत एं मन ही मन न जाने क्या सोचती होंगी ? -- श्वेताम्बर समाजमें जिस प्रकार यति समाज है; उन्होंने अपने ग्रंभोंकी प्रशस्तियों में कई बातें ऐसी दिगम्बर समाजमें लगभग वैसे ही भट्टारक प्रणालीका लिख रखी हैं कि उन्हें ध्यानसे पढ़नेवाला कोई भी इतिहास प्रादि जानने के लिये जैनहितैषीमें श्रीनाथूरामव्यक्ति ऐसा काम नहीं कर सकता ।। जी प्रेमीका निबंध एवं जैनमित्र कार्यालय सूरतसे "भग्नपृष्ठिकटिग्रीवा, वक्रदृष्टिरधोमुखम् । प्राप्त "भट्टारक-मीमांसा" ग्रन्थ पढ़ना चाहिये ।।
SR No.527163
Book TitleAnekant 1940 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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