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वर्ष ३, किरण .]
। धर्मका मूल दुःखमें छिपा है।
उस स्वर्गलोककी रचना करती है,जहाँ देश, जाति, अमृतका सरोवर अन्धकारसे ढका है । जो दुःखसे
और विश्वके हित, दान, सेवा करने वाले, प्राणों न डर कर इसके अन्दर मर्मको देखने वाले हैं, की आहूति देने वाले मनुष्य मर कर जन्म लेते जो अन्धकारसे न घबराकर इसके अन्दर लखाने हैं । जहाँ पूजा प्रार्थना, स्तुति बन्दना, यज्ञ हवन वाले हैं वे ही वास्तवमें सुखलोकके अमतलोकके करने वाले, भक्तजन पैदा होते हैं छ । जहाँ दुःख अधिकारी हैं। केशको सहन करने वाले, व्रत उपवासका पालन करने वाले,भव्यजन अपना धाम बनाते हैं। । दुख अयस्कर ह
Hd दुःख श्रेयस्कर हैजहां वह देवता स्वरूप अमितकाल तक स्वेच्छा- दुःख जीवनके लिये भयानक ज़रूर है, पूर्वक आकाशचारी हो विचरते हैं।
अरुचिकर जरूर है; परन्तु यह जीवनके लिये - यही वेदना जीवनको बाहरसे अन्दरकी अनिष्टकर नहीं, बाधक नहीं, शत्रु नहीं । यह तो ओर आने, शान्तचित हो चिन्तवन करनेकी जीवनका परमहितैषी है, परम पुत्र है । यह जीवन प्रेरणा करती है । यही जीवनको शरीर को सचेत करने वाला है, उसकी वास्तविक दशा
पोषण, विषयभोग, इच्छापूर्तिके रूढिक मार्गको को ठीक ठीक सुझाने वाला है, उसे भूलभुलैय्या, .. छोड़ने, रीतिनीति, त्यागसंयम, शील-सहिष्णुता, धोके फरेबसे बचाने वाला है। यह स्वार्थी नहीं,
दान-सेवा, प्रेम-वात्सल्यका मार्ग अपनानेकी खुशामदी नहीं, यह उसके अज्ञानसे लाभ उठा, शिक्षा देती है। यही जीवनमें उस दिव्य आलोकको हाँ में हाँ मिलाने वाला नहीं। यह उसके झूठे रूप पैदा करती है, जो रोगशोक आताप-सन्तापसे की प्रशंसा कर, उसे खुश करने वाला नहीं । यह दुःखी हृदयको शान्त्वना देता है,जो दुर्दैव,अन्याय तो स्पष्ट कहने वाला है । यह दर्पण तुल्य सरल अत्याचारसे पीडित प्राणोंको धैर्य और शान्तिसे और सच्चा है । यह पुरानीसे पुरानी कल्पित भरता है। यह दिव्य आलोक ही जीवनकी परम मान्यताओंको मिथ्या कहने वाला है, गाढसे गाढ आकांक्षा है । इसके रहस्यका उद्घाटन ही इसके सत्यार्थको असत्यार्थ कहने वाला है । बड़ीसे बड़ी गढ़ विचारको पराकाष्ठा है । इसकी सिद्धि ही बुद्धिमानीको विमूढ़ता कहने वाला है । इसीलिये इसके सतत् पुरुषार्थका परम उद्देश्य है । यदि भयानक है। यह किरणके समान अज्ञान-तन्तुका जीवनको इस आलोकसे वश्चित कर दिया जाये, भेद करने वाला है । यह नश्तरके समान मोहरोग तो जीवन जीने के काबिल नहीं रहता, वह एक पर चोट करनेवाला है। इसलिये यह अरुचिकर है। नीरस और भार बन जाता है।
दुःखका जीवन रचनामें वह है जो यह सुखका लोक दुःखके पीछे छुपा है । यह ज्वरका स्वास्थ्य रचनामें है। ज्वर स्वयं रोग नहीं,
ऋग्वेद ... १५४.३, गीता २.३७. रोसका उमादकता, याततरोगको चेतावनी * मुखक सीता २०, २१ है, जो प्रस्ताशियोंको गाती है। बातोसेगsti + तत्वार्यानिमम सूत्र इ. निरोधका है जो सासरको रोगसे निकाल