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________________ धर्मका मुख दुःखमें छुपा है । वर्ष ३, किरण 5-8 ] धर्म-मार्गकी आविष्कारक हुई हैं । कोई युग ऐसा नहीं, कोई देश ऐसा नहीं जहाँ इस प्रौढ अनुभूति का उदय न हुआ हो और इसके साथ साथ जीवन के अलौकिक आदर्श और तत्प्राप्ति के लिये धर्ममार्गका जन्म न हुआ हो । वैदिक ऋषियोंकी यह अनुभूति वैदिक साहित्योक्त यम, मृत्यु व काल विवरण में छुपी है * । असुर लोगोंकी यह अनुभूति प्रचण्ड भीषण रुद्र, और नाम सभ्यताके रूपमें हम तक पहुँची है | लिंगायत लोगों में यह रुद्रकी मूर्ति और शिव ताण्डव नृत्यमें अङ्कित है + + और बंगालदेश के तान्त्रिक लोगों में काली कराली चण्डी दुर्गाके चित्रमें चित्रित है । औपनिषदिक कालमें यही अनुभूति “ब्रह्म सत्य हैं और नाम-रूप कर्मात्मक्र जगत असत्” है . इस सत्यासत्यवाद में बसी है† । यह अनुभूति आधुनिक वेदान्तदर्शन के मायावाद, तुच्छवाद में प्रकट है । । 'महाभारत' में यही अनुभूति मेधावी ब्राह्मण पुत्रके विचारों में गर्भित है । बौद्ध कालीन भारत में बुद्ध भगवान द्वारा बतलाये हुये चार आर्य सत्योंमें और वीर ** · A. C. Das - Rigvedic Culture 1925 p. 396. अथर्ववेद १६.५३; १३.५४; ऋग्वेद १०.१८. † R. G. Bhandarker Vaisnavesin & Saivana vesin 1928 pages 145-151. $ R. Chanda The Indo Aryan Races. 1916 pages 136-138. + वृह उप० १.६.३. “घरमो एकः सम्नेतत् जयम्" + श्रीशंक्राचार्य - दश श्लोकी ॥ ३ ॥ 4 महाभारत - शान्ति पर्व- १०२ वाँ अध्या * दीघनिकाय - महासति पट्ठानसुत । संयुतनिकाय ५५-२-१. भगवान् द्वारा बतलाई हुई द्वादश भावनाओं में इस अनुभूतिका आलोक होता है। यों तो यह अनुभूति समस्त धर्म मार्गों की आधार है; परन्तु निवृत्ति परक दर्शनोंकी, श्रमणसंस्कृतिकी तो यह प्राण है । इसीलिये औपनिषदिक संस्कृति, वेदान्त, बौद्ध और जैनदर्शनों को समझने के लिये इसका महत्व अनुभव करना अत्यन्त आवश्यक है । ४८३ जीवन के मूल प्रश्न मनुष्य-जीवन में चाहे वह सभ्य हो, या असभ्य, धनी हो या निर्धन, पण्डित हो या मूढ, पुरुष हो या स्त्री, यह अनुभूति जरूर किसी समय आती है और उसके उज्ज्वल लोकको भयानक भावोंसे भर देती है । उस श्रातङ्क में वह सोचता है "मैं कौन हूँ ? क्या मैं वास्तव में निरर्थक हूँ ? पराधीन और निस्सहाय हूँ ? क्या मेरा यह ही अन्तिम तथ्य है कि मैं मंगल कामना करते हुये भी दुःखी रहूँ, आशा रखते हुए भी आशाहीन बनूं, जीवन चाहते हुए भी मृत्युमें मिल जाऊँ ? यदि दुःख ही मेरा स्वभाव है तो सुखकी कामना क्यों ? यदि यह जीवन ही जीवन है तो भविष्य की आशा क्यों ? यदि मृत्यु ही मेरा अन्त है तो अमृत की भावना क्यों ? क्या यह कामना, आशा, भावना, सब भ्रम है, मिथ्या है, मेरा इनसे कोई सम्बन्ध नहीं ? क्या यह लोक ही मेरा लोक है, जहाँ इच्छाओं है, पुरुषार्थको विफलता है ? 'खून * उत्तराध्ययन अध्याय १३ । श्री कुन्दकुन्दाचार्य द्वादशानुप्रेक्षा ।
SR No.527163
Book TitleAnekant 1940 06 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1940
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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