Book Title: Anekant 1940 06 07
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 78
________________ - अनेकान्त [ज्येष्ठ, आषाढ़, वीर-निर्वाण सं०२४१६ सना करता है, वह धर्म तत्वको नहीं जानता, वह देव- प्रकृतिमें विश्वास रखने वाला प्रकृतिरूप हो जाता ताओंके पशुके समान है ।. . है। पशुपक्षियोंकी अज्ञानमय भोगदशाको पसन्द करने पहिलीके लिये दुःख निवृत्तिका उपाय प्राकृतिक वाला पशु पक्षिरूप हो जाता है । देवताओंमें श्रद्धा विजय है, लौकिक विजय है। उसका साधन वशीकरन रखने वाला देवतारूप, पितरोंमें श्रद्धा रखने वाला मन्त्रतन्त्र है वैज्ञानिक आविष्कार है। दूसरीके लिये भूतप्रेतरूप होजाता है। और आत्मामें श्रद्धा रखने दुःख-निवृत्तिका उपाय . अात्म-विजय है । उसका वाला श्रात्मस्वरूप होजाता है। साधन इन्द्रिय-संयम है, मन-वचन कायका वशीकरण इस तरह बाह्य दृष्टि वाला संसारकी ओर चला है, आध्यात्मिक शिल्प है। ___ जाता है और अन्त दृष्टिवाला मोक्षकी ओर चला जाता पहिलीके लिये सुखका मार्ग इच्छावृद्धि है; परि- है। संसारका मार्ग और है और मोक्षका मार्ग और है। ग्रह-वृद्धि है, भोगवृद्धि है । दूसरीके लिए सुखका मार्ग संसार-मार्गसे चलकर धन-दौलत की प्राप्ति हो इच्छात्याग है, परिग्रह स्यांग है, भोगत्याग है। सकती है, परिग्रह श्राडम्बरकी प्राप्ति हो सकती है, भोग पहिलीके लिए सुखका मार्ग अहंकार, विज्ञान - उपभोगकी प्राप्ति हो सकती है। बल वैभव की प्राप्ति और विषयवेदनामें बसा है। दूसरीके लिये सुखमार्ग हो सकती है, मान मर्यादाकी प्राप्ति हो सकती है । साम्यता, अन्तर्ध्यान और अन्तर्लीनतामें रहता है। परन्तु पूर्णताकी प्राप्ति नहीं हो सकती, सुख की प्राप्ति पहिलीका मार्ग प्रवृति मार्ग है । दूसरीका मार्ग नहा। ही नहीं हो सकती, अमृत की प्राप्ति नहीं हो सकती। ___धर्म मार्ग ही ऐसा मार्ग है जिस के द्वारा मनुष्य निवृत्ति-मार्ग है । पहिलीका फल संसार है, दूसरीका। ' लौकिक सुख, लौकिक विभूति को प्राप्त होता हुआ फल मोक्ष है। , अन्त में निर्माणसुख को प्राप्त कर लेता है। ____ जो.जैसी श्रद्धा रखता है वैसी ही कामना करता यदि पर्णताकी इच्छा है तो सिद्ध पुरुषोंकी ओर है, जैसी कामना करता है वैसा ही मार्ग ग्रहण करता देख, यदि अक्षय सुख की अभिलाषा है तो निराकुल है, वैसा ही कर्म करता है, जैसा कर्म करता है वैसा ही सुखी पुरुषोंकी ओर देख । यदि अमृत की भावना है संस्कार, वैसी ही शक्तिको उपजाता है, वैसा ही वह हो तो अमर पुरुषोंकी ओर देख । जो उनका मार्ग है उसे जाता है । ही ग्रहण कर। मिथ यो अन्या देवताम् उपास्ते, अन्यो ऽसौ अन्यो...... -- भम् अस्मीति, म स वेद, अथ फ्रेव स देवानाम्" . --यह उप० १.४.१० . (मा) भद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छूछः स एष (अ) भय खस्वाहः काममयः एवायं पुरुष इति, स . सः--गीता १०.३. यथा कामों यवति, तातुर्भवति यत्नुर्भवति (इ) निस्कपरिशिष्ट ३.६; तत्कर्म कुरुते, यत्कर्म कुरुते तदपिसम्पद्यते । । गोता ७.२१-२३, १. २५. -बृह० उप० ४-४-५. *धम्मपद ॥५॥

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