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वर्ष ३, किरण 5-8 ]
धर्म बहुत दुर्लभ है
देश-काळ परिमित सप्ताके सेवक बने हैं । वे सब धर्मके धर्म तत्त्वकी सूक्ष्मता:लोभ में भासके पीछे चलने वाले हैं, जल के लोभ में मरीचिका के पीछे दौड़ने वाले हैं, अमृतके लोभ में संसार-वनमें घूमने वाले हैं । ये सब धर्म हीन हैं।
इसका क्या कारण है ? जब सब ही जीव सुखके मिली हैं, · सब ही सुखके लिए प्रयत्नशील हैं, तो वे सुख मार्ग पर क्यों नहीं चलते ? उनकी दृष्टि धर्मकी और क्यों नहीं जाती ? वे धर्मका आचरण क्यों नहीं करते ? क्यों यह धर्म एक ढकोसला है ? भ्रम है ? दिल बहलानेकी वस्तु है ! केवल एक शुभ कामना है ?
वास्तविक है:
नहीं, धर्म ढकोसला नहीं, भ्रम नहीं, बहलानेकी चीज़ नहीं, यह वास्तविक है । यह इतना ही वास्तविक है जितना कि सुख और सुखकी भावना, पूर्णता और पूर्णताकी भावना, अमृत और अमृतकी भावना । यदि सुख और सुखकी भावना वास्तविक हैं तो सुखका मार्ग वास्तविक क्यों नहीं ? कोई भावना ऐसी नहीं, जिसका भाव न हो, कोई भाव ऐसा नहीं, जिसकी सिद्धी का मार्ग न हो । जहाँ भावना रहती है, वहीं उसका भाव रहता है, जहाँ भाव रहता है वहीं उसका मार्ग रहता है । सुखकी भावना, पूर्णताकी भावना मृतकी भावना श्रात्मा में बसी हैं। इसलिये सुखमयी तस्व, पूर्णतामयी तत्त्व, अमृतमयी तत्त्व भी आत्मा में रहता है । श्रात्मामें ही उसकी सिद्धीका मार्ग परन्तु इस तत्वको समझने, इस मार्गको ग्रहण करने में दो कठिनाइयाँ हैं - १. धर्म तत्वकी सूक्ष्मता २. जीवन कीं विमूढता ।
है ।
* भाषाभूत ॥११०॥
छुपा
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यह धर्म-तत्व यद्यपि बहुत सीधा और सरल है, बहुत निकट और स्वाश्रित है । यह ऐसा ही सीधा है जैसे दीप-शिखा, ऐसा ही सरल है जैसे दीप प्रकाश, ऐसा ही निकट है जैसे दूध में घी, ऐसा ही स्वाश्रित है जैसे शरीर में स्वास्थ्य । यद्यपि यह सर्वप्राप्य है, सकल भेद भाव रहित प्राणिमात्र में मौजूद है । यद्यपि इसीके सहारे समस्त जीवनका विकास नीचे से ऊपर की ओर हो रहा है - शारीरिक जीवनसे सामाजिक जीवनका चोर, सामाजिक आर्थिक की ओर आर्थिकसे मानसिक की
र, मानसिक से नैतिककी ओर, नैतिकसे आध्यात्मिक की ओर - परन्तु इस तत्वका मानना कठिन हो गया है, इसके जाननेका जो साधन अन्तज्ञीन है, वह काम में न श्रानेसे - अभ्यास में न रहने से कुण्ठित हो गया है, मलीन हो गया है, खोया सा हो गया है, चौर जो इसके विपरीत तत्वको देखने जाननेका साधन है, वह इन्द्रियज्ञान, बुद्धिज्ञान, नित्य प्रति अभ्यास में लाने से अधिक अधिक तीक्ष्ण हो गया है ।
धर्मका तत्त्व कोई ऐसी बाह्य वस्तु नहीं जो इन्द्रियों से दिखाई दे, बुद्धि से समझ में आये, हाथ पावसे पकड़ में श्राये, रुपये-पैसेसे खरीदी जाए, यह अन्तरङ्ग वस्तु है, तर्क और बुद्धिसे दूर है, हाथ और पाँवोंसे परे है । यह जीवन में छुपा है, जीवनको विकल करनेवाली अनुभूतियोंगें छुपा है, जीवनको ऊपर उभारनेवाली भावनात्रों में • छुपा है । यह अव्यन्त गइन है, यह सूक्ष्मता से दिखाई देने वाला है, अन्तर्ज्ञानसे समझ में आनेवाला है जो अनुभवी पण्डित हैं, वेही इसे देख सकते हैं * ।
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* कठ० उप०३.१२.१ मीता ७. २५ । मज्झिमनिकाय
२६बाँ सुच