Book Title: Anekant 1940 06 07
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 33
________________ वर्ष ३, किरण ८.६] बावली घास चारपाई पर पड़ गए । निर्बलता हद दरजे की हो गई। हालतमें भला नश्तर कैसे लगाया जाय ? जहाँ करवट पिताजीके घनिष्ट मित्र साहित्याचार्य पं० पद्मसिंह शर्मा बदलने में दम निकलनेका अन्देशा हो, वहाँ कैसी चीरभी बीमारीका हाल सुनकर हरदुआगञ्ज आ गए । उस फाड़ ?" शर्मा जीको सम्बोधित होकर बोला-"पंडित समय हम लोगोकी चिंताका ठिकाना न था, तरह २ के साहब ! मैंने आपके दोस्त को बड़े ग़ौरसे देखा, मरज इलाज-मुबालजे कराए गए । कनखल निवासी वैद्यराज बहुत बढ़ गया है, मेरे बसकी बात नहीं रही । बाबूस्वर्गीय पं० रामचन्द्र शर्माने आयुर्वेदोक्त औषधियाँ दी, साहब, माफ करना, ऐसी हालत देख कर मेरा तो और भी कई प्रसिद्ध वैद्योंकी चिकित्सा हुई; कितने ही कलेजा काँपता है. नश्तरका तो कोई सवाल ही नहीं। डाक्टरोंका ईलाज कराया गया; परन्तु खून बहना बन्द मैं भी खुदावन्द तालासे दुआ करूँगा कि वह इन न हुआ । पिताजीको परेशानी और कमज़ोरीका ठिकाना पंडितजीको जलदसे जलद शफ़ा बख्शे । बस, इतना ही न रहा । उनका मोटा ताजा शरीर सूख कर काँटा बन मेरे इमकान में है । और कुछ नहीं। अच्छा, मैं जाता गया । करवट बदलने और बात करने में भी कष्ट होने हूँ, श्रादाब अर्ज़ ।" लगा। हम लोगोंकी चिंता निराशामें परिणित हो गई। जिस जर्राह के लिए श्री स्व. पद्मसिंह शर्माने स्वयं पिताजीको अच्छा होनेकी उम्मेद न रही । इतना ज़ोर दिया, जिसके नश्तरकी रवानगी पर सारा बीसियों मिलने-जुलने वाले रोज आते और बड़ी मन्द घर टकटकी लगाए बैठा था, जिसके दस्ते-मुबारिक पर वाणीमें, अत्यंत उदासीनताके साथ, "जब तक सांस काफी भरोसा था, वह भी टका-सा जवाब देकर चलता तब तक अास" की लोकोक्ति सुनाकर चले जाते । बना । अब शर्मा जीके हृदयमें भी निराशाका समुद्र इस समय तक हम लोगों में अगर किसीका धैर्य नहीं उमड़ने लगा। उनकी भावुकता, जो अब तक धैर्य के छूटा था, तो वह थे पं० पद्मसिंह शर्मा । शर्मा जी सबको बन्धनसे जकड़ी पड़ी थी, आँखोंमें झलझला श्राई । धैर्य बंधाते हुए बराबर प्रयत्नशील बने रहनेका प्रोत्सा- उन्होंने अपनेको बहुत कुछ सँभालते हुए, भरे हुए हन देते रहे । हमारे हृदय निराशासे भर चुके थे, केवल कण्ठसे कहा "भाई, अब हम लोगोंका फ़र्ज़ है वाहरी बचन-विलासमें प्राशावादिताकी झलक दिखाई कि 'कविजीकी खूब सेवा करें और उन्हें ज़रा भी तकदेती थी, सो भी रोगीको बहकाने या दभ-दिलासा देने लीफ़ न होने दें, जिससे जो टहल-चाकरी बन पड़े, के लिए। करनी चाहिए । फिर तो कविजीकी सूरत भी..." कहते २ शर्माजीकी हिचकियाँ बंध गई, और हम सब बुरी तरह व्याकुल होने लगे । मेरी माता और हम सब बुरी तरह व्याकुल होने लगे। मेरी माताने तो चिन्ताके अन्त में पं० पद्मसिंह शर्माके परामर्शसे एक मशहूर कारण कई दिनोंसे अन्न तक त्याग दिया था । वह जर्राह बुलाया गया । जर्राह अाया, मगर मरीज़ को देख पाँच-सात मुनक्के ( दाख ) खाकर रात-दिन पिताजी कर उसके होश उड़ गए, अक्ल चकरा गई । कहने की चारपाई पकड़े बैठी रहती थीं । . लगा-"उफ, ऐमी कमज़ोरी ! इतनी नकाहत ! इस * * *

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