Book Title: Anekant 1940 06 07
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 40
________________ ११८ अनेकान्त निर्माण होकर संसार में उसका प्रचार किया जा सकता है। पण्डित सदासुखदासजी के एक प्रधान शिष्य थे । उनका नाम था पन्नालालजी संघी। आपका उक्त पंडितजी से विक्रम सं० १९०१ से १९०७ के मध्यवर्ती किसी समय में साक्षात्कार हुआ था । पण्डितजी के सदुपदेश एवं प्रभावसे संघीजीकी चित्तवृत्ति पलट गई और जैनधर्मके ग्रन्थोंके अभ्यासकी ओर उनका चित्त विशेषतया उत्कंठित हो उठा। उन्होंने यह प्रतिज्ञा की, कि मैं आजसे रात्रिको १० बजे प्रति दिन पंडितजीके मकान पर पहुँच कर जैनधर्म ग्रंथोंका अभ्यास एवं परि शीलन किया करूँगा । जब संघीजी अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार रात्रिको १० बजे पंडितजीके मकान पर पहुँचे तब पण्डितजीने कहा कि आप बड़े घर के हैं—सुखिया हैं- अतः आपसे ऐसे कठिन प्ररणका निर्वाह कैसे हो सकेगा ? उत्तर में संघीजीने उस समय अपने मुँह से तो कुछ भी नहीं कहा किन्तु जब तक पंडित सदासुखजी जीवित रहे तब तक आप बराबर नियम पूर्वक उसी समय उनके पास पहुँचते रहे । पंडितजी के सहयोग से आपने कितने ही सिद्धान्त ग्रंथोंका अवलोकन किया और जैनधर्म के तत्त्वों का मनन एवं परिशीलन किया । [ ज्येष्ठ, आषाढ़, वीर - निर्वाण सं० २४१६ अनेक उत्तमोत्तम प्रन्थोंकी सुलभ भाषा वचनि काएँ की हैं, और अनेक नवीन ग्रंथ भी बनाएँ हैं, परन्तु अभी तक देश-देशान्तरोंमें उनका जैसा प्रचार होना चाहिये था वैसा नहीं हुआ है। और तुम इस कार्य के सर्वथा योग्य हो, तथा जैनधर्मके मर्म को भी अच्छी तरह समझ गये हो, अतएव गुरुदक्षिणा में मैं तुमसे केवल यही चाहता हूँ कि जैसे बने तैसे इन ग्रंथों के प्रचारका प्रयत्न करो । वर्तमान समय में इसके समान पुण्यका और धर्मकी प्रभावनाका और कोई दूसरा कार्य नहीं है ।" यह कहने की आवश्यकता नहीं, कि पण्डितजीके सुयोग्य शिष्य- संघी जीने गुरु दक्षिणा देने में ज भी आना कानी नहीं की। और आपने अपने जीवनमें राज्जवार्तिक, उत्तर पुराण आदि आठ. ग्रन्थों पर भाषा वचनिकाएँ लिखी हैं और २७००० हजार श्लोक प्रमाण. 'विद्वज्जन बोधक' नामके ग्रंथका निर्माण भी किया है। इसके सिवाय सरस्वती पूजा च्यादि कुछ पुस्तकें पद्य में लिखी हैं। अन्य साधर्मी भाइयों की सहायता से आपने जयपुर में एक "सरस्वती भवन" की स्थापना की थी जिससे बाहरसे ग्रंथोंकी माँग श्राने पर ग्रन्थों की प्रतिलिपि कराकर भेज देते थे 1. उस कार्यको आप पंडितजीकी अमानतः समझते थे, और उस का जीवन पर्यंत तक निर्वाह करते रहे ।। • पंडित सदासुखदासजी ने अन्त समय में अपने शिष्य संघीजी से कहा कि "अबमें इस अस्थायी पर्याय को छोड़कर विदा होता हूँ। मैंने तथा मेरे पूर्ववर्ती पंडित टोडरमलजी, मन्नालालजी और जयचन्द्रजी आदि विद्वानोंने असीम परिश्रम करके यद्यपि पण्डित सदासुखदासजीके मरण-समय पं० पन्नालालजी संघीका परिचय 'विदुजनबोधक' के मुक्ति प्रथमभांगी प्रस्तावना से लिया गया है । देखों पृष्ठ ६७ ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80