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वष ३, किरण ८-९ ]
जैनियों की दृष्टि में बिहार
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सिद्धार्थ नाथवंशके मुकुटमणि कहे गये हैं। जैनसंघ इसी नामसे अधिक परिचित था। यह
आधुनिक साहित्यान्वेषणसे प्रकट हुआ है कि निर्विवाद बात है कि भगवान महावीरके समय ज्ञात्रिक-क्षत्रियोंका निवास स्थान प्रधानतया बैशालीमें जैनियोंकी संख्या अत्यधिक थी। वैशाली (बसाढ़), कुण्डग्राम एवं वणियग्रामोंमें चीनयात्री हुएनस्वांग ( सन् ६३५ ) के भारतयात्रा था। साथ ही, यह भी ज्ञात हुआ है कि नाथ- कालतक जैनियोंकी संख्यामें वहाँ कमी नहीं हुई वंशीय क्षत्रिय कुण्ड ग्रामसे ऐशान्य दिशामें अव- थी; क्योंकि उन्होंने अपने यात्राविवरणमें स्पष्ट स्थित कोल्लागमें अधिक संख्यामें रहते थे। लिखा है कि वैशाली-राज्यका घेरा करीब एक वैशालीके बाहर निकट ही कुण्डग्राम वर्तमान हजार मीलका था, वहाँकी जलवायु अनुकूल थी, था, जो संभवतः आजकलका वसुकुण्ड गाँव है। लोगोंका आचरण पवित्र और श्रेष्ट था, लोग जैनग्रन्थोंके कथनानुसार भगवान महावीरका धर्मप्रेमी थे, विद्याकी बड़ी प्रतिष्ठा थी, और जन्म यहीं पर हुआ था । कोई कोई विद्वान जैनी बहुत सँख्यामें मौजूद थे । तीस वर्षकी कोल्लागको ही महावीर का जन्मस्थान बताते हैं। अवस्थामें भगवान् महावीरने संसारसे विरक्त हो परन्तु यह बात दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों अपने आत्मोत्कर्षको साधने एवं संसारके जीवोंको सम्प्रदायोंकी मान्यताके प्रतिकूल है। नाशवंशीय सन्मार्गमें लगानेके लिये सम्पूर्ण राज्यवैभवको क्षत्रिय वज़िप्रदेशीय प्रजातन्त्रात्मक राजसंघमें ठुकराकर जंगलका रास्ता लिया। दीन दुखियोंकी सम्मिलित थे । कौटिलीय अर्थशास्त्रसे स्पष्ट है पकार उनके उदार हृदयमें घर कर गयी और कि, प्रजातन्त्रीय राजसंघमें क्षत्रियकुलोंके मुखि
उनकी सची सेव। बजानेके लिये वे दृढप्रतिज्ञ याओंकी कौंसिल मुख्यकार्यकी थी और इस
होगये । विशेष सिद्धिके लिये विशेष तपस्याकी कौंसिलके सदस्योंका नामोल्लेख राजाके रूपमें होता था । यही कारण है कि भगवान् महा.
आवश्यकता होती है, यह बात निर्विवाद सिद्ध वीरके पिता सिद्धार्थकुंडपुरके राजा कहलाते थे।
है। इसी लिये महावीरको बारह वर्षों तक घोर
तपश्चरण करना पड़ा। क्योंकि तपश्चरण ही नाथवंशीय क्षत्रिय मुख्यतः जैनियोंके २३वें
आन्तरिक मलको छाँटकर आत्माको शुद्ध, सुयोग्य तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथके अनुयायी थे। बाद.
एवं कार्यक्षम बना सकता है। इस दुर्द्धर तपश्चरणको जब भगवान महावीरके दिव्य कर-कमलोंमें।
की कुछ घटनाओंको ज्ञातकर रोंगटे खड़े होजाते जैनधर्मका शासनसूत्र आया तब वे नियमानुसार
हैं। परन्तु साथ ही साथ आपके असाधारण उनके उपासक बनगये । बौद्धग्रन्थोंमें भगवान्
धैर्य, अटल निश्चय, दृढ़ आत्मविश्वास, अगाध महावीर 'निग्गंथताथपुत्त' के नामसे ही अधिक
साहस एवं लोकोत्तर क्षमाशीलताको देखकर प्रसिद्ध हैं । इसका कारण यह है कि उस जमानेमें
भक्तिसे मस्तक झुक जाता है और मुख स्वयमेव ८ देखो, 'कौहिस्य-रुर्थशास्त्र' का मैसूर सँस्करण पृष्ठ ४५५ ९ देखो, मिसेज स्टिवेन्सन् का 'हार्ट आफ जैनिज्म' (लंडन) १० देखो, 'बंगाल बिहार उड़ीसाके प्राचीन जैनस्मारक' । पृष्ट२३