Book Title: Anekant 1940 06 07
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 68
________________ ५४६ अनेकान्त वह इसमें कभी श्रात्मविश्वास धारण नहीं करता । वह सदा कहता रहता है - "दुःख श्रात्मा नहीं, श्रात्मस्वभाव नहीं, यह अनिष्ट है, अनात्म है, यह न मेरा है, न मैं इसका हूँ, न यह मैं हूँ, न मैं यह हूँ । वह इसके रहते कभी संतुष्ट नहीं होता, कभी कृत्यकृत्य नहीं होता । वह इसके रहते जीवसमें सदा किसी कमीको महसूस करता रहता है, किसी पूर्तिके लिये भविष्य की ओर लखाता रहता है, किसी इष्टकी भावनाको भाता रहता है, इसलिये वह सदा इच्छावान् शान बना है । वह दुःखके रहते नित्य नये नये प्रयोग करता रहता हैं, नये नये सुधार करता रहता है, नये नये मार्ग ग्रहण करता है, इसीलिये वह सदा उद्यमशील बना है 1 यह कहना ही भूल है कि जीवन इस दुःखी जीवन के लिये बना है, इस दुःखी जीवनकै लिये रहता है । यह न इसके लिये बना है, न इसके लिये रहता है । यह तो उस जीवन के लिये बना है, उस जीवन के लिये टिका है जो इसकी भावनाओं में बसा है, इसकी काम ना रहता है, जो दृष्ट है, अज्ञेय है । यदि जीवन इतना ही होता जितना कि यह दृष्टिगत है तो यह क्यों जिज्ञासावान् होता ? क्यों प्राप्त से प्राप्त की ओर, नीचे से ऊपर की ओर, यहाँसे वहाँकी ओर, सीमित से विशाल की ओर, बुरेसे अच्छे की ओर अनित्यसे नित्यकी ओर, अपूर्ण से पूर्ण की ओर बढ़ने में संलग्न होता ? [ ज्येष्ठ, भाषाद, वीर निर्वाण सं० २४६६ कर लेता, इसमें संतुष्ट होकर रह जाता, इसमें कृत्कृत्य हो अपना अन्त कर लेता । परन्तु यह जीवन इतना नहीं, यह अन्य भावनाओं के सहारे, भावी आशाओंके सहारे, भ्रष्ट इष्ट के सहारे बराबर चला जा रहा है, बराबर जिन्दा है । 17 इसमें जरा भी अतिशयोक्ति नहीं कि यदि जीवन इतना ही होता, तो जीव इसे सर्वस्व मान कर विश्वास. + संयुक्तनिकाय २१. २. महापुरुषोंकी साक्षी: यदि यह जानना हो कि वह दृष्ट इष्ट कौनसा है, उसका स्वरूप कैसा है, वह कहाँ रहता है, उसे पानेका क्या मार्ग है, तो इसके लिये अन्तरात्माको टटोलना होगा । यदि अन्तरात्माको टटोलना कसाध्य दिखाई दे तो उन महापुरुषोंके अनुभवोंको अध्ययन करना होगा जिन्होंने तमावरणको फाड़कर अन्तरात्मा को टटोला है, जिन्होंने तृष्णा के उमड़ते प्रवाहको रोक कर अपना समस्त जीवन सत्य-दर्शन में लगाया है, जिन्होंने भयरहित हो आत्माको मन्थनी, दुःखको पेय चिन्तवनको बलोनी बनाकर संसार सागरको मथा है, जिन्होंने मायाप्रपञ्चको फाँदकर सत्यकी गहराई में गोता लगाया हैं, जिन्होंने रागद्वेषको मिटाकर मौत और अमृतको अपने वश किया है, जिन्होंने शुद्ध-बुद्ध दिव्यताका सन्देश दिया है, जो परम पुरुष, दिव्यदूत, देव, भगवान् श्रर्हेत, तीर्थंकर, सिद्ध प्राप्त आदि नामों से विख्यात् हैं, जो संसारके पूजनीय हैं । इस क्षेत्रमें इन्हींका वचन प्रमाण है # * (अ) प्राप्तः खलु साक्षात्कृतधर्मा यथादृष्टस्यार्थस्य चिख्यापयिषया प्रयुक्त उपदेष्टा । - न्यायदर्शन - वात्सायन टीका १-१-७ (आ) येनातं परमैश्वर्यं परानंदसुखास्पदं । बोधरूपं कृतार्थोऽसावीश्वरः पटुभिः स्मृतः ॥ - आप्तस्वरूप ॥२३॥

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