Book Title: Anekant 1940 06 07
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 54
________________ ५३२ अनेकान्त सिवाय जुए में जीते हुए, अपने आप बिके हुए, दुर्भिक्षके समय बचाये हुए आदि अधिक हैं। ये दास जो कुछ कमाते थे, उस पर उनके स्वामीका अधिकार होता था । पूर्वकाल में भारतवर्ष में दास-विक्रय होता था, इसके अपेक्षाकृत आधुनिक प्रमाण भी अनेक मिलते हैं ईसा की चौदहवीं सदी के प्रसिद्ध भारतयात्री इब्नबतूताने बङ्गालका वर्णन करते हुए लिखा है कि “यहाँ तीस गज़ लम्बा सूती वस्त्र दो दीनार में और सुन्दर दासी एक स्वर्ण दीनार में मिल सकती है। मैंने स्वयं एक अत्यन्त रूपवती 'आशोरा' नामक दासी इसी मूल्यमें तथा मेरे एक अनुयायीने छोटी अवस्था का 'लूलू' नामक एक दास दो दीनार में मोल लिया था अर्थात उस समय दास-दासी अन्य चीजों के ही समान मोल मिल सकते थे । । बङ्गला मासिक 'भारतवर्ष ' ( वर्ष ११ खण्ड २ अङ्क ६ पृ० ८४७) में प्रो० सतीशचन्द्र मित्र का 'मनुष्यविक्रय पत्र' नामक एक लेख छपा है । जिसमें दो दस्तावेजों की नक्कल दी है (१) प्रायः २५० वर्ष पहले बरीसाल के एक कायस्थने ७ छोटे बड़े स्त्री-पुरुषों को ३१) रुपयेमें बेचा था । यह दस्तावेज फाल्गुन १३१६ ( बंगला संवत) के 'ढाका रिव्यू' में प्रकाशित हुई है । (२) दूसरी दस्तावेज १६ पौष १९९४ (बं० सं०) की लिखी हुई है । उसका सार यह है कि, अमीरावाद परगना ( फरीदपुर - जिला ) के गोयाला ग्राम - 'देखो, काशीविद्यापीठ द्वारा प्रकाशित 'इब्नबतूता की भारतयात्रा' का पृष्ठ ३६१ । [ ज्येष्ठ - अषाढ़, वीर निर्वाण सं० २४६६ निवासी रामनाथ चक्रवर्तीने अपने पदमलोचन नामक सात वर्षकी उम्र के दासको दुर्भिक्षवश अन्न-वस्त्र न दे सकने के कारण २) पण लेकर राजचन्द्र सरकारको बेच दिया । यह सदैव सेवा करेगा । इसे अपनी दासीके साथ व्याह देना । ब्याह से जो सन्तान होगी वह भी यही दास-दासी कर्म करेगी। यदि यह कभी भाग जाय तो अपनी क्षमता से पकड़वा लिया जाय । यदि मुक्त होना चाहे तो २२ मन सीसा (?) और रसून (लशूनं ?) देकर मुक्त हो जाय । दस्तावेज लिख दी सनद रहे । प्रमाणोंसे स्पष्ट हो जाता है कि पूर्व काल में दास-दासी एक तरहकी जायदाद ही थे, । खरीदे बेचे जा सकते थे, वे स्वयं अपने मालिक न थे, इसीलिए उनकी गणना परिग्रह में की गई है। यह सच है कि अमेरिका-यूरोप आदि देशोंके समान यहाँ गुलामों पर उतने भीषण अत्याचारन होते थे जिनका वर्णन पढ़कर रोंगटे खड़े हो आते हैं और जिनको स्वाधीन करनेके लिए अमेरिका में (सन् १८६०) चार पाँच वर्ष तक जारी रहने वाला 'सिविल वार' हुआ था । फिर भी इस बातसे इन्कार नहीं किया जा सकता कि भारतवर्ष में भी गुलाम रखनेकी प्रथा थी और उनकी हालत लगभग पशुओं जैसी ही थी । सन् १८५५ में ब्रिटिश पार्लमेंटने एक नियम बनाकर इसे बन्द किया है। यद्यपि इनके अवशेष अब भी कहीं कहीं मौजूद हैं। * गुलामीका परिचय प्राप्त करने के लिए बुकर टी० वाशिंगटनका 'आत्मोद्धार' और मिसेज एच० वी० स्टो की लिखी हुई 'टाम काका की कुटिया' आदि पुस्तकें पढ़नी चाहिए।

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