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वर्ष ३, किरण ८-१]
चक्खु चक्खू घोही केवल भालोयणाणमावरणं । इत्तो व भणिस्लामो पणणिद्दा दंसणावरणं ॥ ४७॥ हथगिद्धिणिद्दा खिहाणिद्दा य तहेव पयला य । णिद्दा पयला एवं णवभेयं दंसणावरणं ॥ ४८॥
कर्मकाण्डकी २५ वीं गाथाके अनन्तर कर्मप्रकृति में निम्न गाथाएँ और हैं जिनसे उस त्रुटि की पूर्ति हो जाती है जिसका उल्लेख 'ऊपर नं० २ में किया गया है। क्योंकि इनमें से पहली गाथा में क्रमप्राप्त वेदनीयकर्मके साता श्रसाता रूपमें दो भेदों और मोहनीयकर्म के दर्शन मोहनीय तथा चारित्र मोहनीय ऐसे दो भेदोंका उल्लेख करके दूसरी गाथामें यह प्रकट किया है कि दर्शन मोहनीय बंधकी अपेक्षा एक मिध्यात्व रूप ही है और उदय तथा सत्ताको अपेक्षा मिथ्या त्व, सम्यग्मिथ्यात्व तथा सम्यक्प्रकृतिके भेदसे तीन भेदरूप हैं । और इसलिये इनके बाद २६ वीं गाथाका वह कथन संगत बैठ जाता है जिसका उक्त नं० २ में उल्लेख है:
गोम्मटसार कर्मकाण्डकी त्रुटि - पूर्ति
दुहं खु वेणीयं सादमसादं च वेयणीयमिदि । पुदुवियपं मोहं दंसणचा रित्तमोहमिदि ॥१२॥ बंधादिगं मिच्छं उदयं सत्तं पडुच्च तिविहं खु । दंसणमोहं मिच्छं मिस्सं सम्मत्तमिदि जाण ॥५३॥
कर्मकाण्डकी २६ वीं गाथाके बाद कर्मप्रकृति में निम्न गाथाएँ और हैं जिनसे उस त्रुटिंकी पूर्ति हो जाती है जिसका उल्लेख ऊपर नं० ३ में दिया गया है:
दुविहं चरितमहं कसायवेयणियणोकसायमिदि । पढमं सोलवियप्पं विदियं एवभेयमुद्दिहं ॥५५॥ श्रयं अपञ्चक्खाणं पञ्चक्खाणं तहे वसंजलणं । कोहो माणं माया लोहो सोलस कसा एदे ॥५६॥
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सिलपुर विभेदधूली जलरा इसमाणश्रो हवे कोहो । णारयतिरियण रामरगईसु उपायो कमसो ॥५७ सिलट्ठिकट्टवेते यिभेण । खुरंतो माणं । णारयतिरियणरामरगईसु उत्पायनो कमसो ॥५८॥ वेणुवमूलोरब्भयसिंगे गोमुत्तए य खोरपे । सरिसीमायाणारयतिरियणरामरगईसु खिवदि जीवं ॥ ५६* किमिरायचक्कतखुमल हरिहराएण सरिसश्रो बोहो । णारयतिरिक्खमाणुस देवेसुध्पायनो कमसो ॥६०॥* सम्मत्त देससयलचरित्त जहखादचरण परिणामे । घादंति वा कसाया चउ सोलसश्रसंखलोग़भिदा । ६१ हस्स-रदि- अरदि-सोयं भयं जुगुच्छा य इस्थि-पुंवेयं ! संढं वेयं च तहा एव एदे णो कसाया य ॥६२॥ छादयदि सयं दोसे यदो छाददि परंपि दोसे छादणसीला जम्हा तम्हा सो वरिणया इत्थी ॥ ६३ ॥ पुरुगुणभोगे सेदे करेदि लोयहि पुरुगुणं कम्मं । पुरुउत्तमो य जम्हा तम्हा सो वणियो पुरिसो ॥ ६४॥ विरथी व पुमं णपुंसश्रो उहयलिंगविदिरित्तो । इट्ठावग्गिसमाणगवेदणगरुश्रो कलुसचित्तो ॥ ६५॥ णारयतिरियणरामरक्षा उमिदि चउभेयं हवे नाऊं । णामं बादालीसं पिंडापिंडप्पभेयेण ॥ ६६ ॥ णारयतिरिय माणुस देवगइत्ति य हवे गई चदुधा । इगिवितिच उपंचक्खा जाई पंचप्पयारेहिं ॥ ६७ ॥ ओरालियवेगुब्वियाहारय तेजकम्मणसरीरं । इदि पंच सरीरा खलु तारा वियप्पं वियागाहि ॥६८॥
कर्मकाण्डकी २७वें नम्बरको गाथाके बाद कर्मप्रकृति में चार गाथाएँ और हैं, जिनमें बंधनसंघात स ंस्थान और अंगोपांग के भेदोंका उल्लेख है । और जिनसे वह त्रुटि दूर हो जाती है जिसका उल्लेख ऊपर नं० ४ में किया गया है। वे चारों . गाथाएं इस प्रकार हैं: