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वर्ष ३, किरण ..]
अर्थप्रकाशिका और पं०सदासुखजी
कैसे होता होगा ? उत्तरमें पंडितजीने कहा कि रूप जो कार्य बराबर चालू रहा है वह शायद ही
आपकी कृपासे सब हो जाता है । तब राजाने देखने को मिलता। बड़े आग्रहसे कहा कि अब आपको जो जरूरत हो सो मांगलें, मैं उसे पूरा कर दूंगा और आजसे : पंडितजीकी जीवन-घटनाओंका और कौटुआपको वेतन २०) रु० माहवार मिला. करेगा। म्बिक जीवनका यद्यपि कोई परिचय उपलब्ध इतना सब होने पर भी परम संतोषी पण्डितः नहीं है तो भी जो कुछ टीका ग्रन्थों में दी गई सदासुखदासजीने कहा कि यदि आप मेरी प्रार्थना संक्षिप्त प्रशस्ति आदिसे जाना जाता है उससे पं० स्वीकार करें तो मैं निवेदन करूँ, इस समय मैं जीकी चित्तवृत्ति, उनकी सदाचारता, आत्म-निर्भरत्नकरण्ड श्रावकाचारको टोका लिख रहा हूँ, यता, अध्यात्मरसिकता, विद्वत्ता और सच्ची स्वयं अपनी इस अस्थायी पर्यायका कोई भरोसा धार्मिकता पद पद पर प्रकट होती है । आपका नहीं है और मुझे किसी चीजकी कोई आकांक्षा जिनवाणीके प्रति बड़ा भारी स्नेह था, और उसकी नहीं है । अतः आजसे मैं आठ घंटे के बजाय ६ देश देशान्तरों में प्रचार करनेकी आवश्यकताको घटे ही खजांचीका कार्य किया करूंगा और वेतन आप बहुत ही ज्यादा अनुभव किया करते थे। भी आप मुझे ८) रु० की बजाय ६) रु० मासिक इसलिये आपका अधिक समय शास्त्र स्वाध्याय, ही दे दिया करें। तब राजान कहा कि कलसे सामायिक, तत्त्वचितवन पठन-पाठन और ग्रंथोंके आप खजांचीका काय ६ घण्टे ही किया करें, अनुवादादि कार्योंमें ही व्यतीत होता था । रत्नपरन्तु वेतन यदि आप अधिक नही लेना चाहते करण्ड श्रावकाचारकी टीकाके अवलोकनसे आपके तो वह ८) रु०से किसी तरह भी कम नहीं किया सैद्धान्तिक अनुभवका कितना ही पता चल जाता जा सकता।
है और साथ ही आपकी विचार पद्धत्तिका भी
बहुत कुछ ज्ञान हो जाता है। यद्यपि इस टीकामें १. यदि यह घटना सत्य हो; तो इससे पण्डित कहीं कहीं पर चरणानुयोगके विषयको उसके जीको संतोषवृत्तिका और धार्मिक साहित्यके पात्रकी सोमासे कुछ घटा बढ़ाकर लिखा गया है, निर्माणका कितना अधिक अनुराग प्रतीत होता जो प्रायः पण्डितजीकी उदासीन चित्तवृत्ति का है, इसे बतलानेकी जरूरत नहीं रहती। यदि भट्ट परिणाम जान पड़ता है। फिर भी स्वामी समन्त. रकीय प्रथाके खिलाफ तेरहपन्थ दि० जैनसमाज भद्रके .रत्नकरण्ड श्रावकाचारका यह महाभाष्य में स्थापित न होता और इस तरहसे खासकर पंडितजीके विशाल अध्ययन, विद्वत्ता और कार्यजयपुर राज्यके विद्वान् दिगम्बर साहित्यको अनु- तत्परताकी ओर संकेत करता है । यदि आज वादादिसे अलंकृत कर उसका प्रचार न करते तो दिगम्बर समाजके विद्वानोंमें जैनसाहित्यके उद्धार दि० जैन समाजमें धार्मिक ग्रंथोंके पठन-पाठनादि एवं प्रचारकी उन जैसी लगन हो जाय तो निस्सका और उनके ग्रंथोंके टीका-टिप्पणादिके निर्माण- न्देह कुछ वर्षों में ही बहुत कुछ ठोस साहित्यका