________________
वर्ष ३, किरण
]
यति-समाज
५०३
पड़ी ! चारों ओरसे सुधारके लिये व्यग्र आवाजें अपने गच्छके सुधार करने का निश्चय कर लिया सुनाई देने लगीं। वास्तवमें परिस्थितिने क्रांति-सी और इसी उद्देश्य से वे जिनकुशलसूरिजीको यात्रार्थ मचा दी। श्रावक समाजमें भी जागृति फैली। देरावर पधारे । पर भावी प्रबल है, मनुष्य सोचता सोलहवीं शताब्दीके पूर्वार्द्ध में प्रथम लोकाशाह कुछ है, होता कुछ और हो है । मार्ग ही में उनका (सं० १५३० ) ने विरोधकी आवाज उठाई, स्वर्गवास हो गया,अतः वे अपनी इच्छाको सफल कड़वाशाहने उस समयके साधुओंको देख वर्त- और कार्य में परिणत नहीं कर सके । उनके तिरोमान काल (१५६२ ) में शुद्ध साध्वाचारका भावके बाद उनके सुयोग्य शिष्य श्रीजिनचन्द्र सूरिपालन करना असंभव बतलाया और संवरी जीने अपने गुरुदेवकी अन्तिम आदर्श भावनाको श्रावकोंका एक नया पंथ निकाला, पर यह मूर्ति- सफलीभूत बनानेके लिये सं० १६१३ में बीकानेरमें पूजाको माना करते थे । लोकाशाहने मूर्तिपूजाका क्रिया-उद्धार किया * । इसी प्रकार तपागच्छमें भी विरोध किया, पर सुविहित मुनियोंके शास्त्रीय आनन्दविमलसूरिजोने सं० १५८२ में, नागोरी प्रमाण और युक्तियों के मुकाबले उनका यह विरोध तपागच्छके पार्श्वचन्द्रसूरिजोने सं० १५६५ में, टिक नहीं सका । पचास वर्ष नहीं बीते कि उन्हीं अञ्चलगच्छके धर्ममूर्तिसूरिजीने सं० १६१४ में ' के अनुयायियोंमेंसे बहुतोंने पुन: मूर्तिपूजाको स्वी- क्रिया-उद्धार किया। कार कर लिया ,बहुतसे शास्त्रार्थ में पराजित होकर सत्रहवीं शताब्दीमें साध्वाचार यथारीति सुविहित मुनियोंके पास दीक्षित होगये । सुविहित पालन होने लगा। पर वह परम्परा भी अधिक मुनियोंकी दलीलें शास्त्रसम्मत,प्रमाणयुक्त, युक्तियुक्त दिन कायम नहीं रह सकी,फिर उप्ती शिथिलताका
और समीचीन थीं, उनके विरुद्ध टिके रहनेकी आगमन होना शुरू हो गया; १६८७ के दुष्कालका विद्वत्ता और सामर्थ्य विरोधियोंमें नहीं थी। भी इसमें कुछ हाथ था । अठारहवीं शताब्दीके
इधर आत्मकल्याणके इच्छुक कई गच्छोंके पूर्वार्धमें शिथिलताका रूप प्रत्यक्ष दिखाई देने आचार्योंमें भी अपने अपने समुदाय के सुधार करने लगा,खरतरगच्छमें जिनसूरिजीके पट्टधर जिनचन्द्र की भावनाका उदय हुआ; क्योंकि जो व्यक्ति स्वयं सूरिजीने शिथिलाचार पर नियंत्रण करने के लिये शास्त्रविहित मार्गका अनुसरण नहीं करता, लसका विशेष जानने के लिये देखें हमारे द्वारा लिखित प्रभाव दिन-ब-दिन कम होता चला जाता है । खर- 'युग-प्रधान जिनचन्द्र सूरि' ग्रन्थ । तरगच्छके आचार्य श्री जिनमाणिकक्य सूरिजीने इस दुष्कालका विशद वर्णन कविवर समय
उदाहरणके लिये सं० १५५७ में लोंकामतले सुन्दरने किया है, जो कि मेरे लेखके साथ श्री जिनबीजामत निकला जिसने मूर्तिपूजा स्वीकृत की । (धर्म- विजयजी द्वारा सम्पादित 'भारतीय विद्या' के दूसरे सागर-रचित पदावली एवं प्रवचन परीक्षा)। जैनेतर अंकमें शीघ्र ही प्रगट होगा। इस दुष्कालके प्रभावसे समाजमें मी इस समय कई मूर्तिपूजाके विरोधी मत उत्पन्न हुई शिथिलताके परिहारार्थ समयसुन्दरजीने सं० निकले पर अन्तमें उन्होंने भी मूर्तिपूजा स्वीकार की। १६६२ में क्रिया-उद्धार किया था।