Book Title: Anekant 1940 06 07
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 26
________________ २०४ सं० १७१८ की विजयादशमीको ) कुछ नियम । बनाये | एक बातका स्पष्टीकरण करना यहाँ आव + समय समय पर गच्छुकी सुव्यवस्थाके लिये ऐसे कई व्यवस्थापत्र तपा और खरतर गच्छ के आचार्योंने जारी किये जिनमें से प्रकाशित व्यवस्थापत्रों की सूची इस प्रकार है: -- १ जिनप्रभसूरि (चौदहवीं शताब्दी ) का ' व्यवस्थापत्र' ( प्र० जिनदत्त सूरि चरित्र - - जयसागर सूरि लि० ) २ तपा सोमसुन्दर सूरि-रचित संविज्ञ साधु योग्य कुलकके नियम (प्र० जैनधर्म प्रकाश, वर्ष ५२ अंक ३ पृ०३ ) ३ सं० १९८३ उयेष्ट पट्टन में तपागच्छीय श्रानन्द विमल सुरिजीका 'मर्यादापट्टक' ( प्र० जैनसत्यप्रकाश वर्ष २ अङ्क ३ पृ० ११२ ) ४ सं० १६१३ यु० जिनचन्द्रसूरिजीका क्रियाउद्धार नियम पत्र ( प्र० हमारे द्वारा लि० युगप्रधान निचन्द्रसूरि ) M [ ज्येष्ठ, आषाढ़, वीर- निर्वाण सं० २४६६ श्यक है कि यद्यपि शिथिलाचार अपना प्रभाव दिन ब दिन बढ़ा रहा था फिर भी उस समय अवस्थाका बहुत कुछ परिचय मिलता है । नं० ह व्यवस्थापत्र प्रकाशित होनेके कारण उससे तत्कालीन परिस्थितिका जो तथ्य प्रकट होता है वह नीचे लिखा जाता है:-- १ यतियों में क्रय-विक्रयकी प्रथा जोर पर हो चली थी, श्रावकों की भाँति ब्याज बट्टेका काम भी जा हो चुका था, पुस्तकें लिख लिख कर बेचने लगे थे । शिक्षादिका भी क्रय विक्रय होता था । २ वे उद्भट उज्वल वेष धारण करते थे। हाथमें धारण करने वाले दंडे के ऊपर दाँतका मोगरा और नीचे लोहेकी साँब भी रखते थे । ३ यति लोग पुस्तकोंके भारको वहन करने के लिये शकट, ऊंट, नौकर आदि साथ लेते थे । ४ ज्योतिष वैद्यक यादिका प्रयोग करते थे; जन्म पत्रियाँ बनाते व औषधादि देते थे । ५ धातुका भाजन, धातुकी प्रतिमादि रख पूजन करते थे 1 ५ सं० १६४६ पो०सु० १३ पत्तने हीरविजय सूरि पट्टक ( जैनसत्य प्रकाश वर्ष २ अङ्क २ पृ० ७५ ) ६ सं० १६७७ वै० सु० ७ सावली में विजयदेव सूरिका 'साधुमर्यादापट्टक' ( प्र० जैनधर्म प्रकाश वर्ष ५२ अङ्क १ पृ० १७ ) ७ सं० १७११ मा० सु० १३ पत्तन, विजय सिंह सूरि ( प्र० जै० धर्म प्रकाश वर्ष ५२ अंक २ go++) ८ सं० १७३८ मा०सु० ६ 'विजय समासूरि पट्टक' ( जैन सत्यप्रकाश वर्ष २ अंक ६ पृ० ३७८ ) उपर्युक्त जिनचन्द्रसूरिजीका पत्र प्रकाशित हमारे संग्रह में है । इन मर्यादा-पट्टोंसे तत्कालीन यति समाजकी संग्रहमें भी हैं ) ६ सात आठ वर्षसे छोटे एवं श्रशुद्ध जातिके बालकों को शिष्य बना लेते थे, लोच करनेके विषय में एवं प्रतिक्रमण की शिथिलता थी । ७ साध्वियोंको विहारमें साथ रखते थे व ब्रह्मचर्य यथारीति पालन नहीं करते थे । ८ परस्पर झगड़ा करते थे, एक दूसरेकी निन्दा करते थे | ( अठारहवीं शताब्दी के यति और श्री पूज्योंके पारस्परिक युद्धों तथा मारपीट के दो बृहद वर्णन हमारे

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