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अनेकान्त [ज्येष्ठ, आषाद, वीर-निर्वाण सं०२४६५ श्रावक लोग, जो साधारण स्थितिके थे, यतियोंके बहुत कम मिलते हैं ) और वह घटने घटते वर्त्तपास ब्याज पर रुपये लेने लगे । अतः आर्थिक मान अवस्थाको प्राप्त हो गई। सहायताके कारण कई श्रावक यतियोंके दबेलसे यतिसमाजकी पर्वावस्था के इतिहास पर बन गये. कई वैद्यक-तंत्र-मंत्र आदि द्वारा अपने सरसरी तौरसे ऊपर विचार किया गया है। इस स्वार्थ साधनोंमें सहायक एवं उपकारी समझ उन्हें
उत्थान-पतनकालके मध्यमें यतिसमाजमें धुरंधर मानते रहे, फलतः संघसत्ता क्षीण-सी हो गई। विद्वान, शासन प्रभावक, राज्यसन्मान-प्राप्त अनेक यतियोंको संघसत्ता द्वारा भूल वतला कर पुन: महापुरुष हो गये हैं, जिन्होंने जैनशासन की बड़ी कर्तव्य पथ पर आरूढ़ करनेकी मामयं उनमें भारी सेवा की है. प्रभाव विस्तार किया है, अन्य नहीं रही। इससे निरंकुशता एवं नेतृत्वहीनताके आक्रमणोंसे रक्षा की एवं लाखों जनंतरोंको जैन कारण यति समाज में शिथिलाचार म्वच्छंदतासे बनाया. हजारों अनमोल ग्रंथरनोंका निर्माण किया पनपने एवं बढ़ने लगा। यतिसमाजने भी रुख जिसके लिये जैन समाज उनका चिर ऋणी बदल डाला । धर्मप्रचारके माथ माथ परोपकार रहेगा। अब यति समाजकी वर्तमान अवस्थाका को उन्होंने स्वीकार किया. श्रावक आदि के बालकों अवलोकन करते हुए इसका पुन: उत्थान कैसे हो को वे पढ़ाई कराने लगे, जन्मपत्री बनाना, मुइ. सकता है। इस पर मैं अपन विचार प्रकट करता
दि बतलाना रोगों के प्रतिकारार्थ औषधोपचार हूँ । यद्यपि वर्तमान अवस्था * का वास्तविक चाल करने लगे जिनसे उनकी मान्यता पूर्ववत् चित्र देनेसे तो लेखके अश्लील अथवा कुछ बातों बनी रहे।
के कटु हो जानेका भय है एवं वह सबके सामने उनकी विद्वताकी धाक राल दरबारोंमें भी ही है, अतः विशद वर्णनकी आवश्यकता भी नहीं अच्छी जमी हुई थी, अतः राजाओंमे पन्हें अच्छा प्रतीत होती ! फिर भी थोड़ा स्वरूप दिखलाये सन्मान प्राप्त था, अपने चमत्कारोंसे उन्होंने बिना भविष्य के सम्बन्धमें कुछ कहना उचित नहीं काफी प्रभाव बढ़ा रक्खा था । इस राज्य-सम्बन्ध होगा। एवं प्रभावके कारण स्थानकवामी मत निकला
जो पहले साधु या मुनि कहलाते थे, वे ही तब उनके माधुओंके लिये इन्होंने बीकानेर, जोध
यति कहलाते हैं । पतनकी करीब करीब चरम पुर आदिसे ऐसे आज्ञापत्र भी जारी करवा दिये
सीमा हो चुकी है । नो शास्त्रीय ज्ञानको अपना . थे जिनसे वे उन राज्यों में प्रवेश भी नहीं कर मकें।
आभूषण समझते थे, ज्ञानोपासना जिनका व्यसन १८ वीं शताब्दी तक यति-समाजमें ज्ञानो
सा था,वे अब आजीविका,धनोपार्जन और प्रतिष्ठा. पासना सतत चालू थी, अत: उनके रचित बहतसे अच्छे अच्छे ग्रन्थ इस समय तकफे मिलते हैं। इसका संक्षेप में कुछ वर्णन कालरामजी बरढ़िया
11 005 प्राताजी सानोपामना क्रमशः घटती लिखित 'प्रोसवाल समाजकी वर्तमान परिस्थिति' ग्रंथ ..चली अतः इस शताब्दी विडताणा ग्रन्थ में भी पाया जाता