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भनेकान्त र
[ज्येष्ठ, आषाढ़, वीर-निर्वाण सं०२४६६
परंपरा कथनों पर विचार करनेसे विदित होता है ऊहापोहके पश्चात् इस प्रकार लिखते हैंकि जब आर्य लोगोंका प्रथम प्रवेश प्रारम्भ हुआ, इस भांति अनेक सार गर्भित कारणोंसे कोई तब उसमें प्रथम समूह जैन और बौद्ध लोगोंका भी विचारशील विद्वान संगम विषयक परंपरा प्रतीत होता है । तामिल भूमिमें किसी परिमाणमें कथनको पूर्णतया प्रमाण एवं गंभीर ऐतिहासिक मी प्रतिद्वंद्विताके लिए ब्राह्मणधर्मको न पाकर इन विचारके अयोग्य मानगा। वह तो पौराणिकता अवैदिक संप्रदायोंको बहुधा नैतिक एवं साहि- एवं उस युगमें उत्पन्न तत्कालीन मनोवृत्तियोंको त्यिक रचनाओंके निर्माण-द्वारा अपनेको संतुष्ट अध्ययन करने के लिए एक अध्याय पेश करेगा। करना पड़ा । तामिलवासी भी इस भावनासे यद्यपि वह तामिल इतिहासकी बाह्य घटनाओंको प्रभावित प्रतीत होते हैं और इससे उनकी राष्ट्री- प्रमाणित करनेमें असमर्थ है, तथापि वह परंपरा यताकी ओर उत्मुखता हुई । और इस प्रकार राष्ट्रोयज्ञान के प्रतिनियत समयकी खास घटना दूसरा काल भाव और परिणाममें साहित्यिक रहा होने के कारण चिंतनीय है । मुझे अधिक सन्देह है जिसके परिचायक कुरल, तोल काप्पियम, आदि कि कहीं आठवीं सदीका परम्परा कथन जैनियोंके तात्कालिक ग्रन्थ हैं । हिन्दु लोग सबके अन्तमें पूर्ववर्ती संगम आन्दोलनकी हल्की पुनरावृत्ति तो श्राए और उनके आनेसे राष्ट्रीय जागतिका नूतन नहीं है। हमारे पास इस बात के प्रमाण हैं कि द्वार खुला, जिस ओर द्राविड़ोंका उस वक्तसे पूर्ण वज्रनंदी संगमके संस्थापनके लिये मदुरा गये थे, जीवन और ज्ञान प्रभाहित हुआ । हम तीन वे जैन वैयाकरण और विद्वान थे । वे छटी शतासंगमोंका उल्लेख किए बिना तामिल साहित्यके ब्दिके कर्नाटक प्रांतीय संस्कृत वैयाकरण, जैनेन्द्र सम्बन्धमें कुछ भी नहीं कह सकते । तामिल व्याकरणके रचयिता और संस्कृत व्याकरणके साहित्य खासकर पिछला उन तीन संगमोत्रयी आठ प्रामाणिक रचनाकारों में देवनंदि पूज्यपादके या 'एकेडेमीज़' (Academies) का उल्लेख करता अन्यतम शिष्य थे । यथार्थमें वह संगम् अपने धर्म है, जिनकी अधीनतामें तामिल साहित्यका प्रचारमें संलग्न जैन साधुओं और विद्वानोंक महासद्भव हुआ है। संगम्की बहुतसी कथा तो विद्यालयके सिवाय अन्य नहीं हो सकता। इस पौराणिकतामें छुपी हुई है । पुरातन संगम साहित्य आन्दोलनने तामिल देशमें संगम्के विचारको के नामसे माने जाने वाले अष्ट संग्रहों, दश कवि- पहिली बार उत्पन्न किया होगा । यह अधिक ताओं आदि ग्रन्थोंमें संगम-साहित्यका उल्लेख संभव है कि सातवीं सदी में जैनियोंका निर्दयता नहीं है। आधुनिक पश्चिमात्य विद्वानोंका यह पूर्वक संहार करने के अनन्तर वैदिक हिन्दु समाज परिणाम निकालना ठीक है कि संपूर्ण परंपरा ने अपने घरको व्यवस्थित करनेमें प्रयत्न किया कथन मिथ्यों है और वह किसी उवर मस्तिष्ककी होगा और संगमोंके स्थापनार्थ के धर्म गुरुओंके उपज है । श्री शिवरान पिल्ले,जिनका ऊपर उल्लेख साथमें संलग्न हुये होंगे ताकि वे अपने साहित्यकी फिया जा चुका है, संगम परंपराके विषयमें पर्याप्त प्रामाणिकता और महत्ताको बढ़ाये । यह पूर्वक