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आ सकता ।
अनेकान्त
हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि भविष्य जब पतन या उत्थानका होता है तब एक ही ओरसे पतन या उत्थान नहीं होता, वह चारों ओर से प्रवेश कर अपना घर बना लेता है । यही बात जैनश्रमणसंस्था पर लागू है । जैनागमोंके अनुशीलनसे पता चलता है कि पहले ज्ञानबल घटने लगा । जंबुस्वामीसे केवलज्ञान विच्छेद हो गया, भद्रबाहु से ११ से १४ पूर्व का अर्थ, स्थूलभद्र मे ११ से १४ वाँ पूर्व मूल और वज्रस्वामिसे १० पूर्वका ज्ञान भी विच्छिन्न होगया । इस प्रकार क्रमशः ज्ञान बल घटा और साथ ही साथ चारित्रकी उत्कट भावनायें एवं आचरणायें भी कम होने लगीं । छोटी-बड़ी बहुत कमजोरियोंने एक ही साथ आ दबाया। इन साधारण कमजोरियोंको नगण्य समझ कर पहले तो उपेक्षा की जाती है । पर एक कमजोरी आगे चलकर – प्रकट होकर - पड़ोसिन बहुत सी कमजोरियों को बुला लाती है, यह बात हमारे व्यावहारिक जीवनसे स्पष्ट है । प्रारम्भ में जिस शिथिलताको, साधारण समझकर अपवाद मार्ग के रूपमें अपनाया गया था, वही आगे चल कर राजमार्ग बन गई । द्वादश वर्षीय दुष्काल में मुनियोंको अनिच्छा से भी कुछ दोषोंके भागी बनना पड़ा था, पर दुष्काल निवर्तनके पश्चात् भी उनमें से कई व्यक्ति उन दोषोंको विधानके रूपमें स्वीकार कर खुल्लमखुल्ला पोषण करने लगे । उन की प्रबलता और प्रधानता के आगे सुविहिताचारी
+ इस सम्बन्धमें दिगम्बर मान्यता के लिये " धनेकान्त" वर्ष ३ किरण १ में देखें ।
[ ज्येष्ठ, श्राषाढ़, वीर निर्वाण सं० २४६६
मुनियोंकी कुछ नहीं चल सकी ।
सम्राट संप्रति के समय में जैन मंदिरों की संख्या बहुत बढ़ गई । मुनिगण इन मन्दिरोंको अपने ज्ञान-ध्यान के कार्य में साधक समझ कर वहीं उतरने लगे । वनको उपद्रवकारक समझ कर, क्रमशः वहीं ठहरने एवं स्थायी रूप से रहने लगे । इस कारण से उन मन्दिरोंकी देखभाल का काम भी उनके जिम्मे आ पड़ा, और क्रमशः मन्दिरों के साथ उनका सम्पर्क इतना बढ़ गया कि वे मन्दिरों
अपनी पैतृक सम्पत्ति ( बपौती) समझने लगे । चैत्यवासका स्थूलरूप यहीं से प्रारम्भ हुआ मालूम पड़ता है । एक स्थानमें रहने के कारण लोकसंसर्ग बढ़ने लगा, कई व्यक्ति उनके दृढ़ अनुयायी और अनुरागी हो गये । इसीसे गच्छोंकी बाड़ाबन्दीकी नींव पड़ी। जिस परम्परामें कोई समर्थ आचार्य हुआ और उनके पृष्ठपोषक तथा अनुयायियों की संख्या बढ़ी, वही परम्परा एक स्व गच्छरूप में परिणत हो गई। बहुत से गच्छों के नाम तो स्थानोंके नामसे प्रसिद्ध हो गये। रुद्रपल्लीय, संडेरक उपकेश इत्यादि इस बात के अच्छे उदाहरण हैं । कई उस परम्परा के प्रसिद्ध आचार्य के किसी विशिष्ट कार्य से प्रसिद्ध हुए, जैसे खरतर, तपा आदि । विद्वत्ता आदि सद्गुणांके कारण उनके प्रभावका विस्तार होने लगा और राज
कहा जाता हैं सम्प्रतिने साधुयोंकी विशेष भक्ति से प्रेरित होकर कई ऐसे कार्य किये जिससे उनको शुद्ध आहार मिलना कठिन हुआ और राजाश्रयसे शिथिलता भी था घुसी।