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वर्ष ३, किरण ८-8 ]
जैनधर्म गुरुओं का संगम था, जिसने बहुत करके उस नमूनेके अनुसार वैदिक पक्षको घ अपने साहि दिपक संगमकी कथा कल्पित करने का मार्ग दिखाया । संगम् शब्द से प्राचीन तामिल वासियोंका अपरिचित होना ही उसकी बादकी उत्पत्तिको बताता है । उसके उत्तेजक कारण संगम नामधारी साहित्य पर लक्षित विचारको लादनेका प्रयत्न एक प्रकार से ज्वलंत और मिथ्या विषमतापूर्ण है । (?)”
इसमें मैं जिस बात को जोड़ना चाहता हूँ वह हैद्राविड़ संघका आस्तित्व जिसे दूसरे शब्दों में मूल संघ भी कहते हैं और जो ईसासे १०० वर्ष पूर्व उस दक्षिण पाटलिपुत्र में था । जो कुडेलोर अहातेको वर्तमान तिरुप्पाप्पु लियूर समझा जाता है । इस द्राविड़ संघ के अधिनायक महान जैना चार्य श्री कुंदकुंद थे, जो सम्पूर्ण भारतवर्ष के द्वारा अत्यन्त पूज्य माने जाते हैं वज्रनन्दि द्वारा तामिल
तामिल भाषाका जैन साहित्य
तामिल संगम के पुनरुद्धार का प्रयत्न श्री कुंदकुंदाचार्य से संबंधित आदि मूलसंघकी अवनतिको बताता है । यह बात उन शोध खोज के विद्यार्थियोंकी सूचनार्थ लिखी जाती है, जिनकी तामिल देशीय नियों के प्रभाव-विषयक इतिहास में विशेष रुचि हो ।
इस प्रसंग में दूसरी मनोरंजक तथा उल्लेखनीय बात प्राकृत भाषा और उसकी सब देशों में प्रचार की है। अगस्त्य कृत महान व्याकरण शास्त्र का अवशिष्ट अंश समझे जाने वाले सूत्रों के संग्रह "में उत्तर प्रांतकी भाषाओं - संस्कृत भाषाओं पर एक अध्याय है । उसमें संस्कृत और अपभ्रंश भाषाका उल्लेख करने के अनन्तर सब देशोंमें प्रचलित पाहतम् नामकी भाषाका वर्णन है । हमें पहले उत्तर के विचारशील नेताओंसे विशेष रीति
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से संबंध रखने वाली प्राकृत भाषा के उल्लेख करने का अवसर मिला था । तामिल व्याकरण में उस प्रदेशकी प्रचलित भाषा के रूपमें इसका उल्लेख होना विशेष महत्व की बात है । कारण इससे प्राकृत साहित्यका आदि प्रवेश एवं तामिल देश में प्राकृत भाषा लोगोंके गमनका ज्ञान होता है। इससे संबंधित एक बात और है कि कुछ संगम संग्रहों से नामांकित ग्रंथों में 'वाद विकरु'त्तल' या सल्लेखनाका वर्णन पाया जाता है । इस 'वादविरुत्तल' का कुछ राजाओंने पालन किया था और जिनका अनुकरण उनके मित्रोंने किया था । जैनियोंसे संबंधित एक प्रधान धार्मिक क्रिया को सल्लेखना कहते हैं । जब कोई व्यक्ति रोग या कष्ट से पीड़ित है और वह यह जानता है, कि मृत्यु समीप है और शरीरको औषधि देनेमें काल व्यय करना व्यर्थ है, तब वह अपने अवशिष्ट जीवनको ध्यान तथा प्रार्थनामें व्यतीत करनेका निश्चय करता है वह मरण पर्यन्त आहार एवं औषधि स्वीकार नहीं करता । इस क्रियाको 'सल्लेखना ' कहते हैं । सबसे प्राचीन तामिल संग्रहोंमें इसका उल्लेख पाया जाता है । वहाँ इसे 'वादविकरुतल ' के नामसे कहा है । इसका महत्व यद्यपि बिल्कुल स्पष्ट है किन्तु इस शब्द के उद्भव के विषय में तनिक सन्देह है । जैनियोंने तामिल भाषा में जिस साहित्यका निर्माण किया और जिसके साथ हमारा साक्षात् सम्बन्ध है उसका उल्लेख न करते हुए भी, ये सब बातें मिलकर हमें बलात् यह विश्वास करने के लिये प्रवृत्त करती हैं कि, उपलब्ध प्राचीनतम तामिल साहित्य में भी जैनियों के प्रभाव सूचक चिन्ह पाये जाते हैं ।
क्रमशः
जैन एण्टोक्केरी में प्रकाशित अंग्रेजी लेखका अनुवाद |