Book Title: Anantki Anugunj
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Vardhaman Bharati International Foundation

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Page 7
________________ मुखरित मौन दैनंदिन जीवन को जन्म से मृत्यु तक को बाह्ययात्रा को पश्चाद्भू में अनवरत गतिशील रहती है भीतरी जीवन की एक अन्तर्धारा (Under Current), एक अन्तर्यात्रा । इस अन्तर्यात्रा के सजग पथिक को अपने 'अहम्' के केन्द्र से उठकर अग्रसर होना पड़ता है। तब चलने वाली उसकी सुदीर्घ यात्रा यात्रिक को उसके 'अहम्' (बहिरात्मदशा) के कुंठित केन्द्र से उठा-उखाड़कर 'नाहम्' : 'मैं नहीं हूं' (अंतरात्मदशा) के दूसरे आयाम और क्रमशः 'कोऽहम् ?' : 'मैं कौन हूं?' (आत्मदशा) के तीसरे आयाम से पार कराकर, अन्ततोगत्वा, 'बहुनाम् जन्मानाम् अन्ते', उस चौथे और अंतिम आयाम की ओर ले जाती है, जहां उसे स्वयं ही उस अनंत, अज्ञात सत्ता का अनुभव हो जाता है: “सोऽहम' 'मैं वही हूं' (परमात्मदशा) । यह है वह अन्तर्यात्रा : 'अहम्' से 'सोऽहम्' की, बहिरात्मदशा से परमात्मदशा को । किसी विशेष शुभ प्रस्थान के लिए गतिशील प्रामाणिक पथिक को बाह्यजीवन में जैसे शहनाई के-से मंगलवाद्यों के स्वरों की गूंज और शुभेच्छकों को शुभकामना के शब्द सुनाई देते हैं, वैसे ही अज्ञात अनुग्रह से इस अन्तर्यात्रा के पथिक को अपने यात्रापथ पर सुनाई देने लगती है उस अनंत, अज्ञात सत्ता को शुभ संकेत सूचक अस्वर, नीरव गूंज । दूर असीम, ऊर्ध्व आकाश में मानो वह अज्ञात बजाये जाता है अपनी अदृश्य शहनाई, अदृश्य बीन, उठते रहते हैं उससे अनाहत नाद और सुनाई देती है उसकी अल्प - सी निःशब्द गूंज । ध्यान की, 'ध्यान-संगीत' को,

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