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कारण, हेतू, भ्रान्ति रहित यह, आकांक्षा आशा का उन्नयन, ज्ञात के पार प्रवेश है यह, अज्ञात देश का अनुगमन । रहा भटकता भ्रान्त मनुज, निज परिधि में प्राकू पुरातन, इन सीमाओं के पार क्षितिज, और आयाम अदृष्ट सनातन, सांत - ससीम में होता रहा है,
अब तक उसका आप्यायन, यह मौन भवन असीम अनंत का, बना हुआ है एक वातायन !
हस्ती
हस्ती ही बोलती है और मस्ती ही डोलती है, राज़ों को खोलती है,
प्राणों को घोलती है ।
अनंत की अनुगूंज