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साजों के संग रंगा था, उन्मत्त, मत्त भजन में, सूरों को खोज खोता, तल्लीन बन रटन में,
जड़ कर्म में, कभी खो, फिरता था सूखे रण में,
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साधों को साथ ले कर, क्षण क्षण के आवरण में तब फूट पड़ा यकायक, नवघोष तन बदन में :
मैं कौन ....? मैं कौन ....? मैं कौन P
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अपने को खो रहा था, जन-जन विजन स्वजन में, फिर खोजता अकेला, गहू वर गुहा गहन में, और घूम घूम थका था, वन-उपवन चमन में, और अन्त में रुका था, मूच्छित सुमन के तन में, कर शोर उठा तब कोई, ज्यों मोर हो सावन में,
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मैं कौन
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? मैं कौन
....
? मैं कौन....?
अनंत की अनुगूँज