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क्या भ्रान्त यह गमनागमन, यह पथ,
यह गन्तव्य भी ? और गन्तव्य का नशा उन्मत्त अगम्य, मी ? ' बोलता है तब कोई भीतर से: . 'गंतव्य तो वही-चढ़ना, ऊपर उठना वही - जिसमें न हो उतरना कमी .. !
और फिर निश्चय ही ये झूठ : पथ, गमनागमन और गंतव्य सोचे हुए - ऊपर से, तन-मन से, बाह्यालोक से। वह पथ ही सही, प्रकाशित जो अंतस के आलोक से' सुना, सुन कर सहम गया, साथ ही स्वस्थित भया, तुष्ट और परितप्त हुआ । और तब .... पथ मेरी दृष्टि से अोझल हुआ - - वास्तव में होते हुए भी ! अब, कमी कमी, दृष्टि दौड़ी जाती है बाहर, भुलावा देकर, चोर की माँति, बेचारी आदत की मारी,
अनंत को अनुगूंज
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