Book Title: Anantki Anugunj
Author(s): Pratap J Tolia
Publisher: Vardhaman Bharati International Foundation

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Page 28
________________ अंतस्दीप दीपन केवल बाहर के, न केवल मीतर के! केवल बाहर के भी गलत, केवल मीतर के भी, एक अपेक्षा से, आरम्भ में, गलत--- अन्त में सही होते हुए मी! क्यों कि उसके भीतरी रूप का 'रूपक', उसके भीतरी रूप की उपमा' मी बाहरी दीप के निमित्त - कारण से आई न ? बहिर्दीप-दर्शन से ही अंतर्दीप की स्मृति जगी न ? साकार दर्शन, साकार ध्यान है बाहरी दीप; निराकार दर्शन, निराकार ध्यान है भीतरी दीप । अपेक्षाभेद से, अवस्था भेद से, भूमिका भेद से कहीं बाहरी दीप उपादेय, उपयोगी, हो सकता है, कहीं भीतरी दीप। अतः मैं कहता हूँ: जब तक अवस्था न हो जायँ अनंत की अनुगूंज

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