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भीतरीदीप की अंतस् लो में ही घुल मिल जाने की,
समा जाने की, रमा जाने की,
तब तक आत्मवंचना, मिथ्या आग्रह, परोक्ष दम्भ क्यों करें -
- केवल भीतरी दीप के ही जगने का ? भीतरी दीप तो तब ही जगा मानुं, जब कि वह अखंड जलता रहे, और कभी बुझे नहीं ! जब कि वह हरस्थल जलता रहे, कहीं बुझे नहीं !! 'उठत बैठत कबहु न छूटे, ऐसी तारी लागी' की भाँति ! ! !
वह दीप है 'सहजात्म स्वरूप' का, 'स्वयं' की स्मृति - सुरता और 'परमगुरु' का । जो बाहर से भीतर की ओर सहज ही जग जाता है और जग जाने के बाद कभी न बुझ पाता है । अतः उस दीप को ही क्यों न जलायें ?
उस 'अनुभवनाथ' को ही क्यों न जगायें ? उसे ही जलाना- जगाना है, उसे ही पाना है, वही गंतव्य, वही सार सर्वस्व प्राप्तव्य है । किंतु एकांग उपेक्षा कर बाहरी दीप की
अनंत की अनुगूंज
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