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बात नहीं किसी के बस की, उत्तर - दक्षिण के दो दिश की .... । वे पुष्प - जो रोज रखे जाते थे नये नये, कमी के सभी वे कुम्हला गये, काल के कराल गाल में समा गये, चला - प्रचला बन मन को रमा गये, वैसा ही यह पुष्प फिर आज तो जो राह से मिला हुआ और मैंने ही उठा लाकर रखा हुआ, मेरी मेज पर - जहाँ वह अकेला, खण्डित - सा पड़ा है । यह पुष्प सुवासित असंग, एकाकी, अकेला, एकान्त नितान्त में नीरव निशान्त में स्मृति दिलाता हुआ - मेरे ही एकाकी, अकेलेपन की, और तत्त्ववचन की भी कि, 'एगोऽहं नत्त्थि मे कोई।'
अनंत को अनुगूंज