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तितली और मुक्ति
सर पटकती पर फरफराती,
टकरा रही थी, तितली खिड़की से
:
बंद द्वारों से बाहर जाने, मुक्ति पाने ।
बहुत मथा, कुछ काल बीता, पर निकल न पाई और लगी रही वह टकराने 1
आया अचानक पथिकः कोई; खोली खिड़की, उड़ गई सोई । जीवात्मा भी ऐसे ही टकराती रहती : सर पटकती, दर दर भटकती, मन मसोसती, तन खसोसती, हाथ मचलती, पाँव कुचलती, भीतर झुलसती, बाहर उलझती ... !
पर जब तक मिले न हाथ को थामनेवाला,
बंद द्वारों को खोलनेवाला, लंबी नींद को तोड़नेवाला
ज्ञानी, सद्गुरु, राही, संग युक्ति, तब तक क्या सम्भव है मुक्ति ?
अनंत की अनुगूंज
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