Book Title: Ananthnath Jina Chariyam
Author(s): Nemichandrasuri, Jitendra B Shah, Rupendrakumar Pagariya
Publisher: L D Indology Ahmedabad
View full book text ________________
६७८
सिरिअणंतजिणचरियं सिसिरकिरियासमुवलद्धचेयणो रुयइ दुहभरक्कंतो । पागयनरो व्व सह पिययमाए सुयविरहविहुराए ॥ ८७१० ॥ हा कुमर कुमर ! हा धवलचमरवीइयसरीर ! हा धीर ! । वुड्ढावत्थं मुत्तूण मं गओ कत्थ तं कहसु ? ॥ ८७११ ॥ हा कुंददसण ! हा विगयवसण हा ईसिहसण परिलसण । । हा कोमलकेस ! ह हा सुवेस ! हा रंजियसदेस ! ॥ ८७१२ ॥ हा जणयभत्त हा सारसत्त ! हा नायदेव-गुरु-तत्त । । हा पुरिसरयण ! हा गरिमगयण ! हा अमियसमवयण ! || ८७१३ ॥ को जाय ! तुम मुत्तुं पहायसमए वि मे कमे नमिही । को वा रयणाभरणे दाही बंदीण परितुट्ठो ॥ ८७१४ ॥ सिंगारसुंदरंगो अप्फालिंतो करेण को कुंभं ? । आणंदिस्सइ पउरे करेणुकीलारसपसत्तो ।। ८७१५ ॥ मंडलिय-मंति-सामंत-मित्तदासंग-रक्खपडिहारा । कुमरावहारगुरुसोयसल्लिया तत्थ कंदंति ॥ ८७१६ ॥ एत्थंतरम्मि अत्थाण कणयथंभाओ रयणपुत्तलिया । उत्तरिया मणिमंजीरमंजुझंकाररमणीया ॥ ८७१७ ॥ लीलाए चंकमंती पत्ता रायंतियं भणइ एवं । आयन्नसु निवसुयहरणकारणं चयसु सोयभरं ॥ ८७१८ ॥ दळूण सालिहंजियपुत्तलियं विम्हिओ सपरिवारो । भणइ निवो भद्दासणमलंकिउं कहसु मह देवि ! ॥ ८७१९ ॥ तो सालिहंजिया सा उवविट्ठा तम्मि आसणे अहवा । 'कीरइ अन्नस्सं वि विणयपत्थियं किं न नरवइणो ? ॥ ८७२० ।। अच्चंतविम्हियमणो सपरियणो सो निसामिउं लग्गो । कलकंठविलसिरसरा रन्नो सा साहिउं लग्गा ॥ ८७२१ ॥ बहुसामो वि सुतारो सुपत्तनयसुंदरो वि नयरहिओ । अचलो वि सव्वया वि हु वेयड्ढो अत्थि गिरिराया ॥ ८७२२ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Loading... Page Navigation 1 ... 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778