Book Title: Ananthnath Jina Chariyam
Author(s): Nemichandrasuri, Jitendra B Shah, Rupendrakumar Pagariya
Publisher: L D Indology Ahmedabad
View full book text ________________
७०९
गंधबंधुरकहा ता देव ! तस्स भत्तीए किंकरी हूय तिजयरायस्स । अवलोयणं पि अब्भुदयकारणं किं पुणो नमणं ॥ ९११२ ॥ तिहुयणजणच्चणीओ सो लीलाए वि जमल्लियइ ठाणं । तं चिय निस्सेसाण वि कल्लाणाणं धुवं पत्तं ॥ ९११३ ॥ विन्नत्ती कायव्वाणुजीविणा सामिसालसव्वा वि । किं पुण उभयभवहिया ? ता जं जुत्तं तमायरह || ९११४ ॥ इय विणयपरं आरामियम्मि विन्नविय मोणमल्लीणे । भरहद्धवई जाओ भत्तिब्भरुब्भूयरोमंचो || ९११५ ॥ अद्धत्तेरसरुप्पयकोडीओ देइ पीइदाणे सो । मुक्कासणो जिणिंदं पणमइ य महीमिलियभाले ॥ ९११६ ॥ न्हाओ दहि-दुव्वादल-अक्खय-निक्खेवलसिरसिरकमलो । विप्फुरियकिरणहीरयमुत्तालंकारकमणीओ ॥ ९११७ ।। आरूढो मुत्ताहरणकिरणधवले करेणुरायम्मि । पीयंबरो हिमधरे गेरुयकूडो व्व रेहंतो ॥ ९११८ ॥ सिरधरियधवलछत्तंतलंबिमुत्तावचूलजोन्हाए । धवलिज्जंतो हंसो व्व हसियसियपंकयरएण || ९११९ ॥ नवजोव्वणपणरमणीकरचलसियचारुचमरपंतीए । दूरमलंकिज्जंतो ससिजोन्हाए नहपहो व्व ॥ ९१२० ॥ सिंगारियंगकरिरायखंधरारूढसुप्पहनिवेण । धवलंगेण हरेण व सुनायराएण संजुत्तो ॥ ९१२१ ॥ असमाणरयणभूसणविरायमाणेहिं विहियपरिवारो । रयणविमाणगएहिं जक्खाणट्ठहिं सहस्सेहिं ॥ ९१२२ ॥ सयारोहविरायंतगयघडाघडियवियडपरिवेढो । मंडलियमंडलासियसंदणगणसंपरिक्खित्तो ॥ ९१२३ ॥ सामंतसणाहतुरंगवग्गसंजणियसारसिंगारो । अणुगम्मतो नाणा जाणट्ठियसचिवसेट्ठीहिं ॥ ९१२४ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Loading... Page Navigation 1 ... 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778