Book Title: Amiras Dhara
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 14
________________ जिनत्व : गंगासागर से गंगोत्री की यात्रा / ७ साहब ! आप रामू के बारे में जानते हैं ? वह बोला, नहीं, मैं नहीं जानता। तो बच्चे बोले, कभी घर में भी तो रहा करो। तो आओ अपने घर में। बाहर में खूब घूमे, अब जरा भीतर भी झांकें, जिन बनने के लिए पुरुषार्थ करें, संकल्प करें। जिन के मार्ग पर वही चल सकता है जो आशावादी है, पुरुषार्थवादी है। चन्द्रशेखर, भगतसिंह जैसा जोश जब व्यक्ति के भीतर होता है कि मुझे अपने देश को स्वाधीन कराना ही है, वैसा ही जोश जब जिनत्व की प्राप्ति के लिए पैदा होता है, तभी जिनत्व के फूल खिलते हैं संघर्षों के काँटों के बीच । जिनत्व की साधना संघर्ष की पगडंडी है। संघर्ष वास्तव में महावीरत्व का सहधर्मी है। महावीर का जीवन कितना संघर्षशील रहा था। आचारांग को पढ़ो, जितना संघर्ष जीवन में महावीर ने झेला, उतना शायद और किसी ने नहीं झेला होगा। यही कारण है कि महावीर जो पहले वर्धमान थे, बाद में महावीर कहलाये। महावीर के बचपन का नाम वर्धमान था। यह नाम भी कुछ अर्थवत्ता रखता है। वर्धमान का अर्थ होता है, फैलाव लेता हुआ। जहाँ फैलाव है, वहाँ माया है। जहाँ माया है, वहाँ कषाय है। जहाँ कषाय है, वहाँ बन्धन हैं। और, इन बन्धनों को तोड़ना ही व्यक्ति का पुरुषार्थ है। इसीलिए महावीर ने भीड़-भाड़ से हटकर अपनी वास्तविक स्थिति में आ जाना, प्रतिक्रमण करना ही जिनत्व माना, जैनत्व माना। जिनत्व के साधक को अपने-आप में आने के लिए ध्यानयोग से अपने को समझना है, बहिरात्मा से हटकर अन्तरात्मा में आरोहण करना है। यद्यपि आज महावीर जैसा कोई जिन नहीं है, 'न हु जिणे अज्ज दिस्सई' पर कोई बात कहीं। जिनत्व के लिए किसी के अवलम्बन की जरूरत नहीं हैं। जैसे महावीर ने किसी का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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