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५६ / अमोरसधारा करके आगे बढ़ना सम्भव नहीं है। नैतिकता वास्तव में शुभ और अशुभ का विवेक है और वह विवेक किसी सचेतन में ही सम्भव है। अचेतन या निर्जीव में विवेक की कल्पना करना तो पशु-बुद्धि है, बेहोशी है।
मैंने पढ़ा है, एक व्यक्ति अपने घर-दरवाजे पर ताला लगाकर शराब पीने गया। पत्नी घर में ही थी। पति को शराब पीने गये बहुत देर हो गयी। पत्नी की नींद उचट गयी। वह बरामदे में आकर खड़ी हो गयी और पति की इन्तजारी करने लगी। कुछ देर बाद ही उसका पति उसे दूर से आता दिखाई दिया, झूले की तरह झलता हुआ, डगमगाता हुआ। शराब का नशा जोरों से चढ़ा था। सम्भाल न सका वह स्वयं को। पहुँवा वह अपने घर। घर पर ताला लगा था और चाभी उसके पास थी। बहुत देर हो गयी, मगर वह ताला न खोल पाया। पत्नी ने ऊपर से आवाज दी-क्या हुआ, चाबी खो गई ? डुप्लीकेट चाबी फ ? यह सुनकर पति बोला, चाबी तो मेरे हाथ में है, पर ताला खो गया । हो सके तो इसका डुप्लीकेट ताला फेंक दो।
भला, शराब की बेहोशी में आत्म-विवेक कहाँ से जागेगा ? यही कारण है कि अधिकांश दार्शनिकों को आत्मा सम्बन्धी सिद्धान्त को स्वीकार करना ही पड़ । फिर चाहे एकात्मवाद के रूप में स्वीकार किया हो, चाहे अनेकात्मवाद के रूप में, ईश्वरांस के रूप में या स्वतन्त्र तत्त्व के रूप में। अतः यह कहना युक्ति-संगत है कि दर्शन की सारी प्रणालियां, जीवन की सारी अपेक्षाएँ आत्म-सापेक्ष है। जो लोग आत्मा को अस्वीकार करके दर्शन को, धर्मी को अस्वीकार करके धम को, व्यक्ति को अस्वीकार करके व्यक्तित्व को, चैतन्य को अस्वीकार करके जीवन को विवेचित करना चाहते हैं, वे बिना कारण के काय सिद्ध करना चाहते हैं यह तो बिना दार्शनिक के दर्शन की प्रतिष्ठापना करना है।
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