Book Title: Amiras Dhara
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 74
________________ आत्मा की सत्ता : अनछुई गहराईयाँ मैं आत्मवादी हूँ। मुझे अपने पर विश्वास है। चूंकि मैं आत्मवादी हूँ, इसलिए किसी का अंश नहीं हूँ. ईश्वर का भी नहीं। आत्मा पूर्ण है, अंश अपूर्ण है । अंशों को पाने की तमन्ना कम है । यात्रा हो पूर्ण की, पूर्णता के लिए, पूर्णता की ओर । ईश्वर से भयभीत होना भी मैंने नहीं सीखा है। कारण, भय ईश्वर के पास नहीं ले जाता है । ईश्वर को पाने की भूमिका तो अभय है । यह आत्मा आस्तिक भी नहीं है, पर नास्तिक भी नहीं है। कारण, आस्तिकता और नास्तिकता के भेद मस्तिष्क से उपजे हैं, और आत्मा मस्तिष्क से परे है । आत्मा को पाने का कोई मार्ग भी नहीं है। मागं तो हमें कहीं और ले जाते हैं। जबकि आत्मा कहीं और नहीं, हमारे निकट है, सबसे निकट । इसलिए हमें अपनी आत्मा का दर्शन करना है। . तो आज हम स्वयं को खोलने का प्रयास करेंगे । जैसे ही भीतर की पर्त-दर-पर्त को हटाएंगे आत्मा के प्रकाश का दर्शन हो जायेगा। जब हम अपने को खोलेंगे, तो पायेंगे कि हम अपने आप में स्वतंत्र है। हमारी आत्मा एक स्वतंत्र प्रत्यय है। आत्म-स्वतंत्रता के अभाव में कम और संकल्प की स्वतंत्रता दब जायेगी। जबकि प्रत्येक व्यक्ति के कर्म एवं संकल्प भिन्नता के मुखौटे पहने रहते हैं, स्वतंत्र होते हैं । वस्तुतः आत्मा का अतीत उसकी नियति पर आधारित है और भविष्य पुरुषार्थ पर। ज्ञानवादी आत्मा को कम करने में स्वतंत्र मानता है। वैराग्य, अभ्यास, ज्ञानाराधना आदि द्वारा ज्ञान का अर्जन करता है, जो उसके बलबूते की बात है । कतिपय दार्शनिक आत्मा का सर्वथा स्वातन्त्र्य नहीं मानते। उनके अनुसार आत्म-स्वातन्त्र्य भगवत्कृपा सापेक्ष है । इसीलिए वे लोग प्रपत्ति और पुष्टि को, भगवत् समर्पण और भगवत् अनुग्रह को मोक्ष-प्राप्ति में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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