Book Title: Amiras Dhara
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 79
________________ ७२/अमीरसधारा बन गया। जेल में वह सारी क्रियाएँ कैदी की ही करता है, इसलिए वह कैदखाने का भोक्ता है। किन्नु वह कैदी से परे भी कुछ है । आखिर तो वह आदमी है । कैद के संयोग से उसमें कैद के भोक्तृत्व का आरोपण हो जाता है, किन्तु कैद से छूट जाने के बाद कैद का भोक्तृत्व नहीं रहता। ठीक इसी प्रकार से आत्मा में भी पर के संयोग से भोक्तृत्व का आरोपण होता है, मगर मोक्ष-प्राप्ति के बाद आत्मा में भोक्तृत्व नहीं रहता है। मोक्ष तो कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व दोनों का अयोग है। वहाँ कर्ता और भोक्ता के रिश्ते-नाते नहीं रहते। आगम में कहा गया है अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्टिय सुपढिओ ॥ आत्मा ही सुख-दुःख का कर्ता है और विकर्ता है, भोक्ता है। सत्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना मित्र है और दुष्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना शत्रु है। ___ यद्यपि कुछ लोग कहते हैं कि उसकी आत्मा दुष्ट है, पापी है। मगर ऐसा नहीं है। यदि हमारी आत्मा सत्प्रवृत्तियों में प्रवृत है, तो वह सात्विक है। हमारी आत्मा स्वभावतः अपवित्र, दुष्ट और पापी नहीं है। किसी दूसरे ने यदि पाप किया है, तो उसका प्रभाव आपकी आत्मा पर नहीं पड़ सकता। इसी तरह दूसरे ने यदि पुण्य किया है, तो इससे आपकी आत्मा पुण्यात्मा नहीं हुई। आत्मा किसी दूसरे के पाप से न तो पतित होती है और न ही वह अपने उद्धार के लिए किसी दूसरे पर आश्रित है । अतः यह हम पर निर्भर करता है कि हम अपनी आत्मा को पतित करें या विकसित । दियासलाई का उपयोग हम अंधकार को दूर भगाने के लिए करें या लोगों की झोपड़ियों में आग लगाने में, यह तो हमारे ऊपर ही आधारित है। हमारी आत्मा का उद्धार तो हमें ही करना होगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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