Book Title: Amiras Dhara
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 83
________________ ७६/अमीरसधारा तक पहुँचना पड़ेगा, जहाँ मात्र ज्ञाता ही शेष रह जाता है। जानने वाला हो शेष बचे और कुछ भी नहीं। जब मन, वचन, काया आदि की चुम्बकीय शक्ति से बाहरो पौद्गलिक आकर्षण से हटकर अन्तरात्मा में प्रवेश करने वाले व्यक्ति को ही आत्मा की अनुभूति हो सकतो है । आत्मा से व्यतिरिक्त जितने भी भाव या पदार्थ हैं वे पराधीन हैं, ज्ञेय हैं। वस्तुतः आत्मा का सम्बन्ध पर से है। ज्ञाता से ज्ञेय सदा भिन्न रहता है। जिस चीज को हम जानते हैं, वह अवश्य हमसे भिन्न होगी। उदाहरण से यह बात और स्पष्ट हो जाएगी। जैसे मुझे ठण्डक लग रही है। ठण्डक का मुझे ज्ञान हुआ। मैं ही तो ठण्डक नहीं बना। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मैं और ठण्डक दोनों अलग-अलग हैं। ज्ञय ओर ज्ञाता कभी एक नहीं हो सकते। ज्ञाता सदेव आत्मा है और इतर पदार्थ ज्ञेय है। अब शंका यह है कि आत्म-ज्ञान का क्या अर्थ है ? वस्तुतः आत्म-ज्ञान यह शब्द ही यथार्थतः ठीक नहीं है। फिर भी उस स्थिति को समाधि या आत्म-ज्ञान शब्द से सांकेतिक किया जाता है। जिस स्थिति में चित्तवृत्तियां निरुद्ध हो जाती है इतर पदाथ के ज्ञान का सर्वथा अभाव होता है। इसे ठीक से समझने के लिए दीपक का दृष्टान्त रखा जा सकता है। दीपक का प्रकाश जिस पर पड़ता है, उसका ज्ञान दीपक कराता है, किन्तु ऐसी स्थिति की हम कल्पना करें जहां दीपक का प्रकाश किसी वस्तु पर न पड़ता हो, शून्य में ही दीपक प्रकाशमान हो रहा हो। वही स्थिति समाधि या आत्मज्ञान की है। इस अवस्था में केवल आत्म अनुभूति, आत्मलीनतानिजानन्द रसलीनता ही शेष रह जाती है। आचार्य कुंद-कुंद एक महान् आत्मदर्शी मनीषी हुए हैं। आत्मा पर उन्होंने अपने जो अनुभव लिखे, उतनी गहराई में शायद आज Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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