Book Title: Amiras Dhara
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 82
________________ आत्मा की सत्ता : अनछुई गहराईयाँ/७५ इच्छित दशा है। जहाँ परमात्म भाव, ब्रह्मभाव और अर्हद भाव की निधूम-ज्योति ज्योतिर्मय रहती है। अपनी आत्मा की इस दशा को पहिचानने के लिए ही तो हम मंदिर जाते हैं। मंदिर में रखी मूर्ति परमात्मा को प्रतीक है और हमारी प्रतिछवि है। मूर्ति वह दर्पण है जिसमें हम अपने को ही निहारते हैं और निहार-निहार कर अपने को ही सजाने और संवारने का भाव बनाते हैं । यह प्रयास एक हद तक ठीक ही है । आत्म साक्षा. त्कार के लिए ऐसी पगडंडिया बहुत कुछ सहायता पहुँचाती है। पर आखिर हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि हमारी आत्मा निराकार है । चूंकि परमात्मा भी आत्मा का ही एक परिष्कृत रूप है अतः परमात्मा भी निराकार ही है। जिस व्यक्ति के भीतर आत्मा और परमात्मा के प्रति एकाग्रता और रसमयता के तार नहीं जुड़े हैं तो उसे आकार निराकार तक कैसे पहुँचा देंगे। हमने फोटो खींचा, एक्सरे किया, उसमें मूर्त तो आ गया किन्तु अमूर्त की छवि नहीं उभरी। फोटो तो मुर्दे का भी आ सकता है पर आत्मा का फोटो नहीं खींचा जा सकता। जो मूर्त से अतीत दृष्टि रखता है वही अमूर्त में प्रवेश कर पाता है । आत्मा को न तो देखा जा सकता है, न ही जाना जा सकता है। दर्शन और ज्ञान मूर्त पदार्थ का सम्भव है किन्तु अमूर्त का नहीं। जो स्वयं ज्ञाता है उसे कैसे जाना जा सकता है। आत्मा का तो अनुभव किया जा सकता है। और अनुभव आत्मा को चैतन्य शक्ति से होता है। आत्मा ज्ञाता है, द्रष्टा है। यह ज्ञायक है इसमें ज्ञेय कृत अशुद्धता नहीं है। इसीलिए आत्मा विज्ञान का विषय नहीं बन सकती। आत्मा का तो अपना विज्ञान है। इसे जाना नहीं जा सकता, क्योंकि यह तो जानने वाली है, जानी जाने वाली नहीं है। जिस रूप में हम दूसरी चीजों का ज्ञान करते हैं, उस रूप में इसका ज्ञान नहीं हो सकता। जिसे आत्मा का पता लगाना है, उसे समाधि की उस अन्तिम अवस्था Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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