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७४/अमीरसधारा
- यद्यपि आत्मा अनन्त शक्तियों का स्वामी है, फिर भी एक शक्ति और है, जो इसे कुंठित करती है और वह है कर्म शक्ति। हालांकि कर्म-शक्ति आत्म-शक्ति को आवृत करती है, किन्तु आत्मा की शक्ति कर्म की शक्ति से अधिक है। कम की शक्ति तो ज्वार भाटे की तरह है, पर क्या ज्वार भाटे की शक्ति सागर से ज्यादा है ? कम की शक्ति तो वास्तव में आत्मा के अंगारे के उपर ढकी हुई राख है। राख चाहे बहुत हो, पर हवा के झोंके से उड़ते कितनी देर लगेगी। राख यानी हमारा अज्ञान, हमारा मिथ्यात्व, हमारी नासमझी। यही कारण है कि व्यक्ति आत्म शक्ति-सम्पन्न होते हुए भी अज्ञानवश कर्माधीन हो जाता है।
एक बात याद रखिये कि आत्मा में बन्धन और मुक्ति की, दोनों तरह की शक्तियां है। यह तो सूर्यवत् है, जो स्वयं ही बादल बनता है, और बादलों से आवृत हो जाता है। पर यह मत भूलिये कि जो सूर्य बादलों से आच्छन्न है, उसमें वह शक्ति भी है, जिससे वह उन बादलों से अनावृत होकर प्रकाशमान हो जाता है।
वैसे हमारी संसारी आत्माएँ प्रायःकर विभाव दशा में रहती है यह आत्मा की प्रतिकूल दशा है। इस दशा का नाम ही माया है। आत्मा जब तक माया की शक्ति में उलझी रहती है तब तक विभाव शक्ति के द्वारा परिचालित होती है, कर्मों का बन्धन करती है और उसमें आबद्ध हो जाती है। यह बिल्कुल मकड़ी के जाले की तरह है। मकड़ी स्वयं ही जाल बनाती है और स्वयं ही अपने जाले में उलझ जाती है। यह जाल ही विभाव दशा है यही माया और मिथ्यात्व है। जब आत्मा अपने सहज स्वाभाविक रूप में रहती है तो उसे आत्मा की स्वभाव दशा कहते हैं। इस दशा में आत्मा माया के क्षुद्र बन्धनों को छिन्न-भिन्न कर अपने ही प्रकाश से प्रकाशित रहती है। अन्य शब्दों में यही आत्मा की मुक्तावस्था है और यही योगियों और साधकों की
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