Book Title: Amiras Dhara
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 65
________________ .५८ / अमीरसधारा है, मृत है । देवदत्त जैसा सचेतन प्राणी ही तो यह सोच सकता है कि वह स्तम्भ है या पुरुष ! जब कोई साधक साधना में निमग्न हो जाता है तो उसे यह स्पष्ट आभास हो जाता है कि मैं काया नहीं हूँ | तभी कायाध्यारण छूटेगा, कायाशक्ति टूटेगी ओर साधक शारीरिक भौतिक प्रवाह से हटकर आन्तरिक साधना के लिए प्रस्तुत होगा । चूँकि आत्मा अमूर्त है । उसे देख नहीं पाते, क्योंकि देखने वाली स्वयं आत्मा है । कुछ इशारे ऐसे अवश्य हैं, जो मूर्त में अमूर्त की झलक दे देते है । वीणा मूर्त है, पर संगीत अमूर्त है । शब्द मूर्त है, पर उसका अर्थ अमूर्त है । अमूर्त को अमूर्त कहकर नकारा नहीं जा सकता । उसे मूर्त करने के भी तरीके हैं । एक बार एक ऊँटगाड़ी और एक कार की आपस में टक्कर लग गयी । संयोग कुछ ऐसा था कि ऊँटगाड़ी का कुछ नहीं बिगड़ा, पर कार उल्टी हो गयी । उसे खासा नुकसान हुआ । उसने ऊँट वाले पर कोर्ट में दावा कर दिया । न्यायाधीश ने ऊँट वाले से पूछा, 'क्या तुम्हें सामने से कार आती दिखाई दी ? ऊँट का मालिक बोला, 'हां, साहब !' क्या तुमने कार को साइड में करने के लिए ड्राइवर को हाथ का इशारा किया ? ऊँट का मालिक बोला, नहीं साहब !" न्यायाधीश ने पूछा, क्यों ?, ऊँटवाला बोला, 'साहब, इसकी कोई जरूरत ही नहीं थी । भला, जिसे मेरी इतनी बड़ी ऊँटगाड़ी दिखाई न दी उसे मेरा हाथ कैसे दिखाई देता ?" तो जो लोग मूर्त को भी भलीभाँति नहीं देख पाते, वे अमूर्त को कैसे देख पाएँगे ? नो इन्दियग्गेज्म अमुत्तभावा, अमुत्तभावाविय होई निचो ।' आत्मा तो अमूर्त है, अतः इन्द्रिय गोचर नहीं है ! इसे इन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जा सकता । इन्द्रियों के द्वारा तो परपदार्थ को जाना जाता है । इन्द्रियाँ अपने इन्द्रिय- - स्वरूप को नहीं जान सकती। हमारी आँख दूसरे की आंख को तो देख सकती है, पर क्या Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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