Book Title: Amiras Dhara
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 70
________________ आत्मवाद : रहस्यमयी परतों का उद्घाटन | ६३ कारण बनकर परमाणुओं के समूह को रूप देकर शरीर का निर्माण करती है। कर्मों के अनुसार आत्मा को शरीर मिलता है। क्योंकि जैसा वह तत्वतः भिन्न-भिन्न जानता है, ज्ञायक भावरूप जानता है, वही समस्त शास्त्रों को जानता है। भेद-विज्ञान को यही पृष्ठभूमि है। आत्मा और शरीर दोनों में भेद करने वाला ही ज्ञानी है। यदि दोनों को कोई अभेद मानता है तो वह मित्थात्वी है, अज्ञानी है। तादात्म्य होने के कारण लोग शरीर और आत्मा को एक मान लेते हैं। जबकि बाहर जाने का मार्ग है, और प्राप्त भी बाहर से ही है. माता-पिता से प्राप्त है। भेद-विज्ञान सध जाने के बाद बाहर का प्रभाव नहीं पड़ता। आनन्दघन, देवचन्द्र, राजचन्द्र, सहजानन्दघन, विनोबा भावे, आनन्दमयी माँ, विचक्षणश्री, धनदेवी माँ, हम्पीवालीऐसे अनेक लोग हैं, जिन्होंने भेद विज्ञान को तल से छूआ। जिसके पास विवेकी हंस-दृष्टि है, वही दूध-पानी की तरह आत्मा और अनात्मा में भेद कर सकता है। ___मैंने सुना है, घर की मालकिन ने दूध वाले से कहा, क्या बात है, दूध में पानी डाला है ? दूधवाले ने कहा नहीं, मैया ! मालकिन बोली, 'खा कसम'। दूधवाले ने कहा, 'गंगा माँ की कसम' यदि मैंने इसमें पानी डाला हो।' मालकिन बोली, तब फिर दूध पतला क्यों है ?' मालकिन ! दूध रात का है, अतः अशुद्ध है। इसलिए मैंने गंगा का अमृत डालकर पवित्र किया है। हालांकि दूध शुद्ध है और गंगा का पानी भी शुद्ध है मगर दो शुद्ध. ताओं का एकमेक हो जाना शुद्धता को समाप्त करना है। उसका परिणाम तो अशुद्धता ही आता है। दूध को दूध माना जाय और पानी को पानी माना जाय। शरीर को शरीर माना जाय और आत्मा को आत्मा माना जाय “सरीर माहु नावत्ति, जीवो वुच्चइ नावियो" शरीर नाव है, और आत्मा नाविक है। नाव ही नाविक नहीं है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86