Book Title: Amiras Dhara
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 64
________________ आत्मवाद : रहस्यमयी परतों का उद्घाटन / ५७ दर्शन के क्षेत्र में भी ऐसी धारणाएँ प्रचलित हैं, जो पुनर्जन्म, कर्मवाद, और पाप-पुण्यवाद को मानती है पर आत्मा के अस्तित्व को पूर्णतया नामंजूर करती है उनके अनुसार तो यदि कोई व्यक्ति आत्मा नामक किसी शाश्वत तत्व को मानता है तो वह मिथ्यात्वी है। उसकी परिगणना उन्होंने मिथ्यात्वियों में की है। वस्तुतः यह अस्वीकृति की अतिवादिता है। खुदकशी की है उन्होंने जीवन के साथ। उनके अनुसार पुनर्जन्म आदि का मूल कारण हमारी वासना है। पर वासना के अस्तित्व को मानने मात्र से पुनर्जन्म आदि कार्य नहीं सधते । चूंकि वासना ऊह्यमान है, अतः संवाहक चाहिये। वासना का स्थान तो भावात्मक शुभाशुभ कर्म जैसा है। जैसे क्रिया का संवाहक आत्मा है, वैसे ही वासना का संवाहक होना चाहिये । भला, यह कैसे सम्भव हो सकता है कि क्रिया है कर्ता नहीं, पथ है पथिक नहीं, संशय है संशयी नहीं, दुःख है दुःखित नहीं, परिनिर्वाण है, परिनिवृत/परि. निर्वात नहीं। अतः जैसे रथी के बिना रथ का चलना सम्भव नहीं है वैसे ही आत्मा के बिना पुनर्जन्मादि क्रियाएँ सम्भव नहीं है। ऐसा लगता है वास्तव में उन दार्शनिकों को दुःख की नितान्त अशाश्वतता की स्थापना करनी थी, इसलिए उन्हें आत्मा का मूलोच्छेद करना जरूरी लगा, क्योंकि आत्मा को शाश्वत मानने से कहीं दुःख भी शाश्वत न हो जाए। अतः क्यों न उस आत्मा को ही जड़ से उखाड़ दिया जाए जो दुःख/सुख का मूल है। इसी उद्दश्य से आत्मा को अस्वीकार किया गया। वस्तुतः दुःख को मिटाना आवश्यक है, किन्तु उसे मिटाना आवश्यक नहीं है, जो दुःख का अनुभव करता है । क्योंकि सुख का अनुभव करने वाला भी वही है, जो दुःख का अनुभव करता है। सुख और दुःख जीवन के दो पहलू है। मात्र दुःखवाद को लेकर आत्मा को अस्वीकृत करना उचित नहीं हैं। आत्मसंयुक्त जीव ही तो यह विचार कर सकता है कि उसे दुःख है या सुख। जिसे ऐसा विचार नहीं है, जो ऐसा अनुभव नहीं करता, वह सचेतन प्राणी नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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