Book Title: Amiras Dhara
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 49
________________ ४२ / अमीरसधारा एक-दूसरे से जुड़े-पनपे हैं । कारण, सभी मूलतः परमाणु हैं। आत्मा इन तीनों से स्वतन्त्र है। उसका अपना स्वरूप है। आत्मा तो निरभ्र आकाश है। मन, वचन, काया के योग के बादल ही उसे ढके हैं। अगर ध्यान का, अध्यात्म का सूर्य उग गया, तो आकाश को निरभ्र होते देर न लगेगी। तो जो लोग सत्य के गवेषक हैं, अन्वेषक हैं, आत्मा में प्रवेश करना चाहते हैं, सत्य की खोज करना चाहते हैं, उन्हें शरीर, वचन और मन की गलियों से गुजरना होगा। ये गलियाँ कोई सामान्य नहीं है। अँधियारे से भरी हुई और काँटों से सजी हुई हैं। इसीलिए साधक की शोध-यात्रा, शोभा-यात्रा ऐसे-ऐसे रास्तों से गुजरती है, जो बीहड़ है। पर आत्मा की किरण इसी शरीर में से फूटेगी। पर जो लोग अपने शरीर को ही स्वस्व समझ बैठे हैं, उन्हें उस किरण की झलक नहीं मिल सकती। बहुधा होता यही है कि या तो व्यक्ति ध्यान करता नहीं है, और कर भी लेता है तो शरीर का ही ध्यान करना है—शारीरिक ध्यान । इसे ही कहते हैं हठयोग । वास्तविक साधना हठयोग से सिद्ध नहीं होती। हठयोग के द्वारा शरीर को काबू में किया जाता है। योगासन भी इसी की देन है। बाहुबली खड़े रहे ध्यान में, पर उनका ध्यान हठयोग से जुड़ा था। अहम् एवं कुण्ठा की दुर्वह ग्रन्थि उनके अन्तरतम में अटकी थी। वे अहंकार के मदमाते हाथी पर बैठे थे। तो ध्यान फल कैसे दे पायेगा । घोर तप करने बावजूद सत्य को उपलब्ध न कर पाये। जैसे ही अहम् टूटा कि सत्य से साक्षात्कार हो गया। वास्तव में ध्यान तो सत्य की खोज है, हठयोग नहीं। प्रसन्नचन्द्र भी तो हठयोग की मुद्रा में खड़े थे, साधु का वेश, योगासन की मुद्रा, पर मन में जो भावों के गिरते-चढ़ते आयाम थे, उसी के कारण नरक-स्वर्ग गति के झूले में झूलते रहे। शरीर तो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86