Book Title: Amiras Dhara
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 47
________________ ४० / अमीरसधारा शरीर भी, हमारा वचन भी, हमारा मन भी बहिरंग ही है। और सत्य तो यह है कि ये ही सबसे अधिक बहिरंगीय पहलू हैं, जिनसे आदमी जुड़ा रहता है और आकाश में फूल खिलाता रहता है। ये मन, वचन, शरीर ही हमें अपने से, आत्मा से बाहर ले जाते हैं, मरीचिका के दर्शन से जल पाने के लिए हमारे भीतरी हरिण को सारे संसार के वन में दौड़ाते हैं। मन, वचन, काया के योग से अयोग होना ही ध्यान का लक्ष्य है। मन, वचन और शरीर—ये ही तो अन्तरात्मा की मूर्ति को ढके हैं, आवृत किये हुए हैं। ध्यान इसे अनावरित करता है। आवरणों को हटाता है, पर्यों को हटाता है। ध्यान की प्रक्रिया वास्तव में आत्मा के स्व-भाव को ढूँढना है । यह शरीर है, शरीर के भीतर वचन है, उसके भीतर मन है और इन तीनों के पार है आत्मा। तीनों के पार तो है, मगर सम्बन्ध तीनों से जुड़ा है क्योंकि आत्मा शरीर व्यापी है। पर लोग हैं ऐसे, जो शरीर को ही आत्मा समझ बैठते हैं और कायाध्यास हो जाता है, कायोत्सर्ग की भावना मन से निकल जाती है। इसीलिए मन, वचन, शरीर वास्तव में बाधाएँ हैं और हमें ध्यान द्वारा इन फंदों को काटना है। हमें समझना है, पर्तों-दर-पत्र्तों को, जिनसे आत्मस्रोत सुधा पड़ा है। शरीर स्थूलतम है। वचन शरीर से सूक्ष्म शरीर है और मन वचन से सूक्ष्म शरीर है। तीनों ही पदार्थ हैं, तीनों ही अणु-समूह हैं। ये तीनों पारमाण्विक, पौद्गलिक, भौतिक संरचनाएं हैं। मजे की बात यही है कि इन तीनों में मन सबसे सूक्ष्म है, पर वही इन तीनों में प्रधान है। शरीर और वचन दोनों का राजा मन ही है मन के ही काबू में हैं ये दोनों। मन जहाँ कहता है, शरीर वहीं जाता है। जिसके मन ने कहा, चलो धर्मस्थल में, वे यहाँ पहुँच गये। जिसके मन ने कहा, वहाँ जाने से कोई लाभ नहीं है, चलो दुकान में। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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