Book Title: Amiras Dhara
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 53
________________ ४६ / अमीरसधारा मित्र सकपका गया । बोला, अरे ! चाबी तो नीचे ही रह गयी । चढ़े तो सही, पर चढ़ना, न चढ़ना दोनों बराबर हो गया । कोल्हू के बैल की यात्रा हो गई । चाबी साथ में नहीं, और चढ़ना शुरू कर दिया । चढ़ना तो है ही पर चाबी लेकर । बिना चाबी के चढ़ना बेकार और चढ़े बिना कमरे में पहुँच नहीं सकते i 1 'स्कूटर के डिब्बे में इसीलिए मैंने कहा साधना के लिए शरीर को साधना मुख्य है, पर उससे भी मुख्य विचारों को साधना है, अन्तरमन को साधना है । क्योंकि साधना का सम्बन्ध बाहर से उतना नहीं है, जितना भीतर से है । प्रवृत्ति में भी निवृत्ति हो सकती है और निवृत्ति में भी प्रवृत्ति हो सकती है। बाहर से कोई व्यक्ति हिंसा न करते हुए भी हिंसक हो सकता है और हिंसा करते हुए भी अहिंसक हो सकता है। हिंसा और अहिंसा कर्ता के अन्तर भावों पर, मन पर, विचारों पर अवलम्बित है, क्रिया पर नहीं । यदि बाहर से होने वाली हिंसा को ही हिंसा माना जाय, तब तो कोई अहिंसक हो नहीं सकता । क्योंकि संसार में सभी जगह पर जीव हैं, और उनका घात होता रहता है । इसलिए जो व्यक्ति अपने मन से, अपने विचारों से अहिंसक है, वही अहिंसक है । अतः मेरे विचारों से आजकल जो तो मूल चीज हमारा अन्तरमन है, अन्तर विचार है । इसीलिए कहा जाता है 'मन चंगा तो कठौती में गंगा ।' साधना में शरीर से भी मुख्य हमारे वचन हैं, मन है । नये-नये नामों से ध्यान की शैलियाँ प्रचलित हुई हैं, उन सबका एक ही लक्ष्य है कि विचार शान्त हों, मन केन्द्रित हो । समीक्षण - ध्यान, प्रेक्षा-ध्यान, विपश्यना ध्यान, सहजयोग - ध्यान — ये सभी विचारों की अग्नि को ठंडा करना सिखाते हैं । - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86