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अयोग हो योग का / ५१ हम आत्म-जगत् में मोड़ दें, तो क्या यह हमें भीतर के ब्रह्माण्ड की यात्रा नहीं करा पायेगा ? बाहर से हटें, भीतर आयें। मन, वचन
और शरीर से वहिरात्मा को छोड़कर, अन्तरामा में आरोहण कर परमात्मा का ध्यान करें, तो हमें आत्म-प्रतीति भी होगी और पारमात्म्य -अनुभूति भी होगी।
आरुहवि अन्तरप्पा, बहिरप्पो छडिऊण तिविहेण । झाइञ्जइ परमप्पा, उवट्ट जिणवरिं देहिं ॥
यदि मन को चट्टानें हट गयों, वचन को चट्टानें हट गयीं, शरीर की चट्टानें हट गयीं, तीनों चट्टानें हट गयीं, तो आत्मा का झरना कलकल करता फूट पड़ेगा। अन्तःकरण में ब्रह्मनाद होगा, परमात्मा की बाँसुरी के सूरीले स्वर हमें मुग्ध कर देंगे। हम उस सत्य का रसास्वादन करेंगे, जिसके प्रति संसार उदासीन रहता है।
हमें ऐसा चिन्तन करना चाहिये कि मैं न पर का हूँ, न मन का हूँ, न वचन का हूँ, न शरीर का हूँ और न ही ये मेरे हैं। मैं तो एक शुद्ध-बुद्ध चैतन्य मात्र हूँ। 'सोहम्' वह मैं ही हूँ।' 'सोहम से ही 'हंसोहम्' की स्थिति आती है। मेरी कस्तूरी मेरी नाभि में ही है 'कस्तुरी कंडल बसै'। आखिर में आप पायेंगे कि सारे अन्तरद्वन्द्व, सारे विकल्प छूट गये हैं। मन आत्मस्वरूप में ही रुक गया है। मन का आत्मा में रुकना, मन का एकाग्र होना ही ध्यान है। वह देह में भी विदेह रहेगा। साध्वी विचक्षण श्री की तरह देह में भी विदेह रहेगा, शरीर की व्याधि में भी समाधि की सुरभि महकेगी। श्रीमद् राजचन्द्र के अस्थि-कंकाल बने शरीर से भी आत्मा की आभा फूटेगी। शान्ति विजयजी की तरह जंगल में रहते हुए भी जीवन में सदाबहार रहेगा। आनन्दघन की तरह श्मशानों में रहते हुए भी अमरता की वीणा झंकृत होगी–'अब हम अमर भये ना मरेंगे'। और सच कहूँ,
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