________________
जिनत्व : गंगासागर से गंगोत्री की यात्रा / ११ इसलिए जिन को पकड़ो। जिन ही है एक का अंक। यही है नौका जो पार लगा दे। उस पार पहुंचा दे। यही वह अवस्था है, जो देहातीत अवस्था में विहार कराती है।
अतः जिनत्व के कर्म करो। जिन स्वयं कर्मशीलता का परिचायक है। कोई भी व्यक्ति जन्म से जिन नहीं होता। जिनत्व की साधना करने वाला ही जिन होता है। जिन होना वीरतापूर्व कठिन संर्घष करके जीतना है। यों तो शब्द के अपने यौगिक अर्थ में युद्धविजेता भी जिन है ; गरीबी को शान्तिपूर्वक झेलने वाला भी जिन है, क्रिकेट का मैच जीतने वाला भी जिन है, यानी वे सब लोग जिन हैं, जो जीतते हैं। जिन का अर्थ समझे विजेता। पर सभी जिन नहीं हैं। जिन-संस्कृति ने, जिनशासन ने, महावीर ने जिसको जिन कहा है, वह जिन आत्म-विजेता है। जिस व्यक्ति ने अपने आभ्यन्तरशत्रुओं को जीता, देहगत और आत्मगत दुश्मनों पर विजय पाई, वही जिन है। यह विजय परम विजय है। क्योंकि बाहर के शत्रुओं को तो कोई भी वीर जीत सकता है, किन्तु भीतर के शत्रुओं को जीतने वाले विरले ही होते हैं। विश्व-विजेता होना सम्भव है।
किन्तु आत्मजयी होना अतिदुष्कर है। सिकन्दर-जैसे इतिहास में बहुत मिल सकते हैं, पर महावीर-सा वीर अति विरल। इतिहास में कभी-कभी एकाध मिल सकते हैं
मोती मिले न बोरियाँ, बीरों की नहि पाँत ।
सिहों के लेहड़े नहीं, साधु न चले जमात || तो सिकन्दर चाहे जीता होगा, सारे संसार को, पर आत्म-विजय से वह अछूता ही रह गया। वह अपने-आप से हार गया। आइंस्टीन ने आविष्कार किये थे हजारों पर अपने आपका आविष्कार नहीं कर
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org