Book Title: Amiras Dhara
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 25
________________ १८/ अमीरसधारा एक है, पर अर्थ-गाम्भीर्य कितना है। जैनधर्म के तीनों रत्नों की चमक इसी एक शब्द से ही तो प्रस्फुटित है। जैसे ही व्यक्ति की अजिन दृष्टि टूटी कि सम्यग् दृष्टि खिली। अविज्ञा और अज्ञता मिटी कि सम्यक् विद्या और सम्यक् ज्ञान के दीप जले। जैसे ही आन्तरिक राग-द्वेष, कामादिक भयंकर शत्रु सर्वथा उन्मूलित हुए कि व्यक्ति का चारित्र्य सम्यक् हुआ। तो जिनत्व की यात्रा ही मोक्षमार्ग है, रत्नत्रय की आराधना है। हाँ, एक बात और कि जिन शब्द का एक और नया अर्थ निकल सकता है। जैसे देखिये हमारे इस शरीर में पाँच ज्ञानेन्द्रिय है और पाँच कर्मेन्द्रिय है। सभी इन्द्रियाँ अपना-अपना कार्य सम्पादित करती है। जिह्वा एक ऐसी इन्द्रिय है जो ज्ञान और कर्म दोनों का कार्य सम्हालती है। जहाँ यह जिह्वा रस तन्मात्रा को ग्रहण करने के कारण ज्ञानेन्द्रिय है, वहीं वाणी के विधान का भी कार्य सम्पादित करती है और कर्मेंद्रिय में भी गिनी जाती है। वस्तुतः जिह्वा एक ऐसी इन्द्रिय है, जो सभी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का प्रतिनिधित्व करती है। जिह्वा में भी जिनत्व का प्रभुत्व है। लेकिन इस प्रभुत्व को देखने के लिए थोड़ी सूक्ष्म दृष्टि चाहिये। आप गौर से देखिये कि यह प्रभुत्व कैसा है और क्यों है। जिह्वा शब्द का अर्थ समझने के पहले इस सिद्धान्त का ज्ञान होना जरूरी है कि 'नामाद्ध ग्रहणे सम्पूर्णनाम बोधः' अर्थात् आधा नाम उच्चारण से पूरा नाम ग्रहण होता है। जैसे किसी का नाम है गौरीशंकर। पर पिता उसे बुलाते समय कहता है, अरे ओ गोरिया। गोरिया आधा नाम है, पर इससे गौरीशंकर ही आयेगा। अब आप देखिये कि जिह्वा और जिन में क्या सम्बन्ध है ! जिह्वा में जो जि है, वह जिन का ही बोधक है। 'जिनं वयति या सा जिह्वा'-जिसे जिन भगवान् की शरण में जाकर आर्तस्वर से अपने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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