Book Title: Amiras Dhara
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 36
________________ ध्यान-साधना बनाम स्वार्थ-साधना / २९ वस्त्र स्याही से साफ नहीं होता। बल्कि स्याही से और सन जाता है । तो स्याही से सने वस्त्र के लिए पानी की जरूरत है । जो अपने कपड़े को स्वच्छ करने में लगा है, वह सदैव सतर्क रहता है कि कहीं मेरे कपड़े पर कोई दाग तो नहीं है । संयोगवश कहीं दाग दिखाई भी पड़ जाये तो उसे धो डालने का प्रयास करता है । स्वार्थ इसी में है कि स्व बचा रहे, स्वच्छ कपड़े की तरह, दाग हट जायें, स्याही के, खून के । जब स्व पर से हटता है, जब स्व स्व में समा जाता है, वहीं स्वारोहण होता है । मैं जिस स्व की बात कर रहा हूँ, स्वनिकेतन की चर्चा कर रहा हूँ, वही है आत्म- मन्दिर, हमारा असली घर । यह भगवान् का मन्दिर है और इन्सान का घर है । इसी घर में है गृह स्वामी । आत्म- मन्दिर में ही विराजित है, परमात्मा की प्रतिमा । हमें इसी की पूजा करनी है और उस पूजा की सामग्री है ध्यान । ध्यान ही ऐसा साधन है, जिसके द्वारा आत्मा में छिपी परमात्मा की आभा मुखरित होती है । ध्यान ही वह चाबी है, जिससे अन्तःकरण का ताला खुलता है । साधना के मार्ग में ध्यान वैसा ही है, जैसा आकाश में सूर्य । ध्यान ही साधुता की जड़ है ।" सीसं जहा सरीरस्स, जहा मूलं दुमस्स य । सव्वस्स साधुधम्मस्स, तहा झाणं विधीयते ॥ जैसे शरीर में मस्तक है, वृक्ष में जड़ है, वैसे ही साधना में ध्यान है । इसीलिए मनुष्य के हाथ-पैर कट जाने के बाद भी वह जिन्दा रहता है, मगर मस्तक कट जाने के बाद जीवन-लीला ही समाप्त हो जाती है । वृक्ष है, मगर वह तभी तक जब तक उसकी जड़ें मजबूत हैं । डालियाँ काटो, पत्ते काटो, तना काटो, पर जड़ें रहने दो । पेड़ फिर खिल उठेगा, पुनः जीवित हो उठेगा। इसकी जगह डालियाँ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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