Book Title: Amiras Dhara
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 39
________________ ३२ / अमीरसधारा चोगे का उपयोग तो शरीर के लिए है। मन तो वेशमुक्त है। वह कभी तो नीचे गिर जाता है और कभी उपर उठ जाता है, और ऊपर भी इतना उठ जाता है कि निर्वाण की एवरेस्ट चोटी को छू देता है। जिस प्रसन्नचन्द्र राजर्षि का मन उन्हें सातवीं नरक में ले जाने को उद्यत हो जाता है। वही जब ऊपर की ओर उठता है, तो इतना उठता है कि राजर्षि ब्रह्मर्षि बन जाते हैं, उन्हें परम ज्ञान प्राप्त हो जाता है, वे सिद्ध-बुद्ध मुक्त हो जाते हैं। इसीलिए मैंने कहा कि मन वेशमुक्त है। उसका सम्बन्ध भीतर से है। वह अन्तर् घर का मालिक बना बैठा है। वह उस जगह अपना शासन करता है, जहाँ कोई वेशभूषा या लिंगचिह्न नहीं है । इसीलिए जिस साधु का जिस साधक का अन्तरमन नहीं सधा, मन निग्रन्थ नहीं बना, तो बाहर का धारण किया हुआ द्रव्यलिंग बेकार साबित हो जाता है। वह वेश उसको दुनिया के द्वारा आदर तो दिला सकता है, पर उसकी आत्मा का कल्याण नहीं कर सकता। आत्मा का कल्याण, स्वयं का विकास, स्वार्थ का श्रेय तो तभी होता है, जब व्यक्ति भीतर से जुड़ता है। और ध्यान व्यक्ति को भीतर से जोड़ने वाला है, योजक है। यह वह सूई-धागा है, जो फटे कपड़े को साँधती है। पर एक बात पक्की है कि ध्यान का सम्बन्ध भीतर से है । बाहर से भीतर, भीतर से और भीतर ले जानेवाला है यह। और भीतर भी, इतना भीतर ले जाता है कि कुण्डलिनी जग जाती है, षट्चक्र भेदन हो जाते हैं, सहस्रकमल रस से भीग जाता है, अन्दर में आनन्द का सागर हिलोरे लेने लगता है, एक ब्रह्मनाद होता है और व्यक्ति सर्वज्ञ हो जाता है, उसे केवलज्ञान का प्रकाश मिल जाता है। इसलिए ध्यान जुड़ा है हमसे, हमारे स्व से, आत्मा से। जो लोग चाहते हैं अध्यात्म में रमण करना, उसका फल पाना, वे लोग जुड़े स्वयं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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