Book Title: Amiras Dhara
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 44
________________ अयोग हो योग का जीवन काव्य-जैसा है। जैसे काव्य मन को भाता है, वैसे ही जीवन भी सबको भाता है। जो काव्य रामायण जैसा है, वह सुखद होता है। जो जोवन राम जैसा है, वह भी सुखकर है। जो काव्य सड़क छाप है, जिसे सुनने से उबासियाँ आने लगती हैं, लोग झपकी लेने लग जाते हैं, वह काव्य, काव्य नहीं, मात्र शब्दाक्षरों का समूह है। वह जीवन भी कोई जीवन थोड़े ही है, जो संसार के लिए अहितकर है, मृतप्रायः है। इसलिए जीवन ही काव्य है और काव्य ही जीवन है। जैसे काव्य की दो धाराएँ हैं अंतरंगीय और बहिरंगीय, वैसे ही जीवन की भी दो धाराएँ हैं। जहाँ दोनों धाराओं में संगम है, वहीं जीवन्तता है, काव्यता है। छंद, अलंकार आदि काव्य के बहिरंगीय पहलू हैं और रस काव्य का अंतरंगीय। यद्यपि काव्य की आत्मा रस ही है, पर छंद, अलंकार उस रस को उपजाते हैं। वैसे ही जीवनकाव्य है। जीवन का मुख्य उसका अंतरंग ही है, पर बहिरंगता को साथ लिए बिना अंतरंग की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। जीवन का बहिरंग भौतिक साधनों से जुड़ा हैं और अंतरंग आध्यात्मिक साधनों से। इसलिए बहिरंग विज्ञान है और अंतरंग अध्यात्म है। विज्ञान भौतिक प्रयोग है और अध्यात्म ध्यान योग है। विज्ञान का शास्त्र शुरु होता है, पर से और अध्यात्म का शास्त्र शुरु होता है खुद से। अध्यात्म और विज्ञान में फर्क तो है, पर वह जीवन के अंतरंगीय और बहिरंगीय जितना ही। दोनों में प्रतियोगिता तो है, प्रतिस्पर्धा तो है, पर राम-रावण जैसा कोई प्रतिद्वन्द्वी भाव नही हैं। यह तो वैसे ही है, जैसे विद्यालय में प्रतियोगिताएँ होती हैं। दस लड़के गीत गाते हैं, कोई एक पुरस्कार पाता है। प्रथम वह जरूर आया, पर प्रथम आने से बाकी लड़के उससे दुश्मनी नहीं रखेंगे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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