Book Title: Amiras Dhara
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 26
________________ जिनत्व : गंगासागर से गंगोत्री की यात्रा / १९ उद्धार के लिए ध्यानपूर्वक जिनेश्वर को बुलाना चाहिये । इसी में जिह्वा की सार्थकता है । वही जिह्वा सार्थक है, जिसने जिन का गुणगान किया । चूंकि जिह्वा सभी इन्द्रियों का प्रतिनिधित्व करती है, इसलिए सभी इन्द्रियों की सार्थकता इसी में है कि वे जिह्वा की तरह ही जिन के शरण में जाये। जिन की शरण में जाने वाला जैन है, फिर चाहे शरणार्थी इन्द्रियाँ ही क्यों न हो ! जसे जो व्यक्ति जिन के पथ पर चलता है, वह जैन कहलाता है, ठीक वैसे ही जो इन्द्रियाँ जिन का अनुसरण करती हैं, वे भी जैन हैं । इसलिए हमें जिन शब्द को पकड़ लेना चाहिये । यही तो डूबती चींटी को तिनके का सहारा है । जिन में ही तो निजत्व का बोध है और निज में ही जिनत्व का आलोक है । जिसने जिन को समझ लिया सम्यक् प्रकार से, उसने जिन - संस्कृति को समझ लिया । जिसने जिन को नहीं समझा, वह निज को समझ नहीं पायेगा । वैयाकरण पंडित कहते हैं कि जिसने एक शब्द का अच्छी तरह से सम्यक् ज्ञान कर लिया, उसने सारे व्याकरण को और यहाँ तक कि ब्रह्म को जान लिया है । 'नमो जिणाणं' अच्छा मन्त्र है । मुझे एक घटना याद है, एक युवक अपने ससुराल जा रहा था । युवक था गँवारु । समझदारी थी कम, जाना था शहर । उसके पिता को भय था कि लड़का नासमझ है । क्या कहना चाहिये और क्या छिपाना चाहिये, इसका इसे बोध नहीं है । कहीं यह अपने श्वशुर के सामने कुछ अंट-संट न बोल दे । इसलिए पिता ने बेटे को कहा कि बेटा ! वहाँ पर ज्यादा मत बोलना । 'जी-न' का सहारा लेना । लड़का चाहे जैसा हो, पर था आज्ञाकारी । उसने हाँ भर दी और मन में संकल्प किया कि मैं 'जी-न' के अलावा और कुछ भी नहीं बोलूँगा । पहुँचा अपने ससुराल । 'आये दामाद युवक के ससुराल पहुँचने पर उसके श्वशुर ने कहा, जी' ! युवक बोला जी ! श्वशुर ने कहा, मेरी बेटी को साथ नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86