Book Title: Agam Sutra Satik 04 Samavay AngSutra 04
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Shrut Prakashan
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समवायाङ्गसूत्रम्-३/३
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परिभ्रमणहेतुकर्मनिदानानि, तत्र ऋध्या-नरेन्द्रादिपूज्याचार्यत्वादिलक्षणया गौरवम्, ऋद्धिप्राप्त्यभिमानतप्राप्तिप्रार्थनाद्वारेणात्मनोऽशुभभावगौरवमित्यर्थः, एवंरसेनगौरवरसगौरवंसातया गौरवं सातगौरवं चेति।
तथा विराधनाः-खण्डनाः, तत्र ज्ञानस्य विराधना ज्ञानविराधना-ज्ञानप्रत्यनीकतानिह्नवादिरूपा एवमितरे अपि।
नवरं दर्शनं सम्यग्दर्शनं क्षाधिकादिचारित्रं-सामायिकादीति ।
तथा असद्ध्यातवर्षायुषां पञ्चेन्द्रियतिर्यगमनुष्याणां देवकुरुत्तरकुरुजन्मनां त्रीणि पल्योपमानीति,तथाआभङ्करप्रमङ्करं आमङ्करप्रभङ्करं चन्द्रंचन्द्रावर्तचन्द्रप्रभंचन्द्रकान्तं चन्द्रवन चन्द्रलेश्यं चन्द्रध्वजं चन्द्रशृङ्गचन्द्रसृष्ट चन्द्रकूटं चन्द्रोत्तरावतंसकं विमानमित्यादि।
समवायः-३ समाप्तः मुनि दीपलसागरेण संशोधिता सम्पादिता अभयदेवसूरि विरचिता समवायाज द्वितीय समवाय टीका परिसमाप्ता।
(समवायःमू() चत्तारि कसाया प०२०-कोहकसाए माणकसाए मायाकसाए लोभकसाए। चतारिझाणा प० तं०-अट्टज्झाणे रुद्दज्झाणे धम्मज्झाणे सुक्कज्झाणे। पत्तारि विगहाओ प० तं० -इथिकहा भत्तकहा रायकहा देसकहा। चत्तारि सन्ना प० तं० -आहार० भय० मेहुण० परिग्गहसना। चउब्बिहेवन्धेप० तं०-पगइबंधेठिबन्धेअनुमावबन्धेपएसबन्धेचउगाउएजोयणेप०।
अनुराहानक्खत्ते चउतारे प०, पुव्वासादानक्खत्ते चउतारे प०, उत्तरासादानक्खत्ते चउतारे प०।
इमीसेणंरयणप्पमाए पुढवीए अत्थेगइयाणां नेरइयाणं चत्तारि पलिओवमाइंटिई प०, तच्चाए णंपुढवीए अत्येगइयाणं नेरइयाणं चत्तारि सागरोवमाइंठिई प०।
असुरकुमाराणं देवायं अत्येगइयाणं चत्तारि पलिओवमाइंठिई प०/
सोहम्मीसाणेसुकप्पेसुअत्येगइयाणंदेवाणंचत्तारि पलिओवमाइंठिईप, सणंकुमारमाहिंदेसु कप्पेसु अत्यगइयाणं देवाणं चत्तारि सागरोवमाई ठिई प०।
जे देवा किटिं सुकिलुि किट्ठियावत्तं किट्टिप्पमं किद्विजुत्तं किहिवत्रं किहिलेसं किहिल्झयं किद्विसिंग किद्विसिढ किटिकूड किटुत्तरवडिंसगंविमाणंदेवत्ताएउववन्ना तेसिणंदेवाणं उक्कोसेणं चत्तारि सागरोक्माई ठिईप तेणं देवा चउण्हऽद्धमासाणं आणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वातेसिं देवाणं चर्हि वाससहस्सेहिं आहारट्टे समुप्पाइ।
अत्येगइआ भवसिद्धिया जीवाजे चउहिंभवम्गहणेहिं सिज्झिरसंतिजाव सव्वदुक्खाणं अंतं करिस्सति।
वृ. चतुःस्थानकमपि सुगममेव ।नवरं कषायध्यानविकथासज्ञाबन्धयोजनार्थं सूत्राणां षट्कं, नक्षत्रार्थ त्रयं, स्थित्यर्थ षट्कं, शेषं तथैव।
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